________________
विजयोदया टीका
३७७ एवंभूतो निर्वापयतीत्येतद्वयाचष्टे
अंगसुदे य बहुविधे णो अंगसुदे य बहुविधविभत्ते ।
रदणकरंडयभूदो खुण्णो अणिओगकरणम्मि ।।५०१।। 'अंगसुदे य' श्रुतं पुरुषः मुखचरणाद्यङ्गस्थानीयत्वादङ्गशब्देनोच्यते आचारादिकं द्वादशविधं तस्मिन्नङ्गश्रुते । 'बहुविहे' नानाप्रकारे। आचारं, सूत्रकृतं, स्थानं, समवायः, व्याख्याप्रज्ञप्तिः । 'णो अंगसुदे य' अङ्गबाह्ये वा। 'बहुविधविभत्ते' सामायिकं, चतुर्विशतिस्तवो, वन्दना, प्रतिक्रमणं, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवकालिका उत्तराध्ययनं, कल्पव्यवहारः, कल्प्यं, महाकल्प्यं, पुण्डरीकं, महापुण्डरीकं इत्यादिना विचित्रभेदेन विभक्ते । 'रयणकरंडयभूदो' रत्नकरण्डकभूतः । 'खुग्णो अणियोगकरणम्मि' यद्यत्प्रस्तुतं च वस्तु तत्र तत्र सदादिकाद्यनुयोगयोजनायां कुशलः । अनेन ज्ञानमाहात्म्यं सूचितं ।।५०१।।
वत्ता कत्ता च मुणी विचित्तसुदधारओ विचित्तकहो ।
तह य अपायविदण्हू मइसपण्णो महाभागो ॥५०२।। .. 'वत्ता' वक्ता । 'कत्ता य' कर्ता च विनयवैयावृत्त्ययोः । 'विचित्तसुधारगो' विचित्रं श्रुतं प्रथमानुयोगः, करणानुयोगश्चरणानुयोगो, द्रव्यानुयोग इत्यनेन विकल्पेन । 'विचित्तकहो' विचित्रायाः कथायाः निरूपणा अस्य स विचित्रकथः । ननु च 'अंगसुदे य बहुविधे णो अंगसुदे य बहुविधविभत्ते' इत्यनेनैव गतत्वात् किमनेन 'विचित्तसुदधारगो' इत्यनेन ? नैष दोषः । पूर्वसूत्रे श्रुतकेवलो निर्वापकत्वेनोक्तः । अनया तु असमस्तश्रुताचा
आगे कहते हैं कि इस प्रकारका आचार्य क्षपकका चित्त शान्त करता है
गा०-टी०--श्रुत एक पुरुषके समान है। आचार्य आदि बारह उस श्रुतपुरुषके मुख, पैर आदि अंगोंके स्थानापन्न होनेसे अंग शब्दसे कहे जाते हैं। आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति इत्यादिके भेदसे वह अंगश्रुत नाना प्रकारका है।
नो अंगश्रुत अर्थात् अंगबाह्य भी सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन. कल्पव्यवहार. कल्प्य. महाकल्प्य पण्डरीक. महा रोक इत्यादि विचित्र भेदसे विभक्त हैं। जो आचार्य इन सब श्रुत भेदोंके लिए रत्न रखनेके पिटारेके समान हैं अर्थात् जैसे पिटारेमें रत्न सुरक्षित रहते हैं वैसे ही वह इन श्रुतरूपी रत्नोंका अभ्यास करके उन्हें अपने हृदयमें धारण करता है। तथा जो जो प्रस्तुत विषय है उस उस विषयमें सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व आदि अनुयोगोंकी योजना करनेमें कुशल होता है वही आचार्य क्षपककी अशान्तिको शमन कर सकता है। इससे आचार्यके ज्ञान माहात्म्यको सूचित किया है ।।५०१॥
गा०-टी०-तथा वह वक्ता अर्थात् व्याख्यान करने में कुशल, विनय और वैयावृत्यका कर्ता और प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोगके भेदसे नाना प्रकारके श्रुतका धारक और विविध प्रकारका निरूपण करनेवाला तथा रत्नत्रयके अतिचारोंका ज्ञाता और स्वाभाविक बुद्धि से सम्पन्न तथा जितेन्द्रिय महात्मा होता है ।
शंका-पूर्व गाथामें आचार्यको अंगश्रुतका और विविध अंगबाह्यका ज्ञाता कहा ही है । फिर यहाँ विचित्र श्रुतका धारक क्यों कहा?
४८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org