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________________ भंगवती आराधना योऽपि एवंभूतो निर्वापको भवतीत्याख्यायते तेन न पुनरुक्तता । 'तह य' तथा च । 'आपायविदहू' रत्नत्रयातिचारजः । 'मइसंपज्यो' स्वाभाविक्या बुद्धया समन्वितः । 'महाभागो' स्ववशो महात्मा ॥५०२।। पगदे हिस्सेसं गाहुगं च आहरणहेदुजुत्तं च । अणुसासेदि सुविहिदो कुविदं सण्णिव्ववेमाणो ॥५०३।। 'अघुसासेदि' अनुशास्ति । 'पगदे' वक्तुं प्रारब्धे वस्तुनि । 'णिस्सेसं गाहुगं' समस्तमववोधयत्तदनु शासनं करोति । 'महरमहेदजतं च' दष्टांतेन हेतना च यक्तं । एतस्माद्धेतोरिदमेवैतदिति यक्त्यानशास्ति 'सुविहिदों यतिः । 'कुविदं' कुपितं 'सण्णिव्ववेमाणो' सम्यक् प्रशमयन् सम्यक्प्रसादमुपनयन् ॥५०३।। णिद्धं मधुरं गंभीरं मणप्पसादणकरं सवणकंतं । देइ कहं णिव्यवगो सदीसमण्णाहरणहेउं ॥५०४॥ "णिद्ध" प्रियवचनबहुलतया स्निग्धं । 'मधुरं' अनतिकठोराक्षरतया मधुरं । 'गंभीर' अर्थगाढतया । 'मणप्पसाबकरणं' मनःप्रल्हादविधायिनी । 'सवणकतं' श्रुतिसुखं । ‘देदि कथं' कथां कथयति । "णिव्ववगो' निर्वापकः । 'सदोसमण्णाहरणहेदु" स्मृतिसमानयनकारणं । पूर्वाभ्यस्तश्रुतार्थगोचरस्मरणं इह स्मृतिरिति गृह्यते मविवचनो वा । 'मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनान्तरम्'-[त० सू० १] इति वचनात् । तेन बुद्धिसम्पन्वयनकारणमित्यर्थः इति केचित् ॥५०४॥ विजावगो इत्येत्सूत्रपदं व्याचष्टे जह पक्खुभिदुम्मीए पोदं रदणभरिदं समुद्दम्मि । णिज्जवओ धारेदि हु जिदकरणो बुद्धिसंपण्णो ॥५०५।। 'वह पाखुभिदुम्मोए' यथा प्रचलिततरङ्गे। 'समुद्दम्मि' समुद्रे । 'पोदं' पोतं नावं । 'रदणभरिदं' रत्नभरित्नं । पिन्बवगो' निर्यापकः । 'धारेदि खु' धारयति । 'जिदकरणो' परिचितक्रियः । 'बुद्धिसंपण्णो' बुद्धिसंपचः बुद्धिमान् ॥५०५॥ समाधानपूर्व गाथामें श्रुतकेवलीको निर्वापक रूपसे कहा है और इसमें समस्त श्रुतका बो ज्चात्ता नहीं है ऐसा आचार्य भो निर्वापक होता है यह कहा हैं। इससे पुनरुक्त दोष नहीं है ॥५०२॥ गा०—जिस वस्तुका निवेदन करना प्रारम्भ करे तो उसके समस्त हेय उपादेय रूपका बोध दृष्टान्त और युकिसे करावे कि इस हेतुसे यह ऐसा ही है। ऐसा आचार्य कुपित हुए क्षपकको सम्यक् रूपसे प्रसन्न करके उसे शिक्षा देता है ॥५०३।।। मा०—निर्वापक आचार्य प्रियवचनोंकी बहुतायत होनेसे स्निग्ध, अधिक कठोर अक्षर न होनेसे मधुर, अर्थको प्रगाढता होनेसे गम्भीर, मनको प्रसन्नता और कानोंको सुख देनेवाली कथा कहते हैं जिससे क्षपकको पहले अभ्यास किये हुए श्रुतके अर्थका स्मरण होता है। यहाँ स्मृतिसे कोई व्याख्याकार मतिका ग्रहण करते हैं क्योंकि तत्त्वार्थसूत्रमें मति, स्मृति संज्ञा, चिन्ता अभिनिबोधको अर्थान्तर कहा है। अतः वे अर्थ करते हैं कि उस कथासे क्षपकमें बुद्धि का आगमन होता है, उसकी बुद्धि जाग्रत हो जाती है ॥५०४।! आगे गाथाके णिज्जावग (निर्यापक) पदका व्याख्यान करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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