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विजयोदय टीat
'भूमिसंथारो' भूमिसंस्तरः । मृद्वी भूमिर्बाध्यते गात्रकरचरणमर्दनेन । असमाने तदात्मनो बाधा । सुषिरे बिले वा प्रविष्टा निर्गतास्तत्रस्थाः पीडयन्ते । आर्द्रा चेदकायिकानां पीडा । अनुद्योते अपश्यतः कथमसंयमपरिहारः । अन्ये तु सप्तम्यन्ततां व्याचक्षते । अमृद्वयां अनिम्नोन्नतायामसुषिरायां इति तदयुक्तं | आधेयस्य संस्तरस्य अन्यस्याभावात् । अपि च पुढवी सिलामओ वा इति वचनेन पृथिवीरूपतया संस्तरस्योक्ते ॥ ६४० ॥ विद्धत्थो य अफुडिदो णिक्कंपो सव्वदो अससत्तो ।
समपट्टी उज्जोवे सिलामओ होदि संथारो || ६४१॥
विद्धत्यो य विध्वस्तः दाहात्कुट्टनाद्धर्षणाद्वा । 'अफुडिदो' अस्फुटित: । 'णिक्कंपो' निश्चलः | 'सम्वदो' समन्तात् । ' असं सत्तो' जीव रहितः । पाषाणमत्कुणादिरहित इति यावत् । 'समपट्ठी' समपृष्ठः । 'उज्जोए' उद्योते । 'सिलामओ होदि संथारो' शिलामयो भवति संस्तरः ||६४१॥
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भूमिसमरुंदलहुओ अकुक्कुचोकंग' अप्पमाणो य ।
अच्छिदो य अफुडिदो लन्हो वि य फलयसंथारो ||६४२ ॥
'भूमिसमरु दलहुगो' भूम्यवलग्नः महान् लघुः । २" अकुक्कु चोगंगि अव्यमाणो य' अचलः, एकशरीरः, निर्जन्तुकः । 'अच्छिदो य' अच्छिद्रः । 'अफुडियो' अस्फुटितः । 'लण्हो' मसृणः । फलगसंथारो' फलक
संस्तरः ।। ६४२ ।।
रहित हो, जन्तुरहित हो, क्षपकके शरीरके बराबर प्रमाणवाली हो, गीली न हो, मजबूत और गुप्त हो, प्रकाशसहित हो वही भूमि संस्तररूप होती है । कोमल भूमि शरीर हाथ पैरके दबावसे दब जाती है । ऊँची-नीची भूमिमें क्षपकको कष्ट होता है । बिल होनेसे उनमें रहनेवाले या उनसे निकलनेवाले जीवोंको पीड़ा होती है । गीली होनेसे जलकायिक जीवोंको पीड़ा पहुँचती है । प्रकाशरहित भूमिमें कुछ दिखाई न देनेसे असंयमसे बचाव नहीं होता ।
अन्य व्याख्याकार उक्त शब्दोंकी सप्तमी विभत्तिपरक व्याख्या करते हैं कि कठोर भूमिमें, छिद्ररहित में संस्तर होना चाहिए आदि । किन्तु यह युक्त नहीं है क्योंकि आधेय संस्तर भूमिसे भिन्न नहीं है भूमि ही संस्तररूप होती है । तथा 'पुढवीसिलामओवा' गाथा के इस पदसे संस्तरको पृथ्वीरूप कहा है ।
विशेषार्थ - यदि भूमिमें चींटी आदिका वास होता है तो संन्यासकालमें वे क्षपकको काट सकती हैं । जन्तुसहित होनेपर प्राणिसंयमकी विराधना होती है । क्षपकके शरीर के प्रमाणसे अधिक होनेपर व्यर्थ प्रतिलेखना आदि करना होती है। शरीरके प्रमाणसे कम होनेपर क्षपकको शरीर संकोचनेसे दुःख होता है । यदि भूमि दृढ़ न हो तो शरीर के भारसे दबनेपर उसके अन्दर जन्तु हों तो उन्हें बाधा होती है और क्षपकको भी कष्ट होता है । प्रकट भूमि होनेपर मिथ्यादृष्टिजनों का सम्पर्क होता है || ६४० ॥
गा० - शिलामय संस्तर आगसे, कूटनेसे अथवा घिसनेसे प्रासुक हुआ हो, टूटा-फूटा न हो, निश्चल हो, सब ओरसे जीव रहित हो, अर्थात् पत्थर में रहनेवाले खटमल आदिसे रहित हो । समतल हो, ऊँचा-नीचा न हो । प्रकाशयुक्त हो । ऐसा शिलामय संस्तर होता है ।। ६४१ ।। गा०—फलकसंस्तर सब ओरसे भूमिसे लगा हो, विस्तीर्ण हो, हलका हो, उठाने लाने ले
१. अकुडिलएगंगि आ० मु० ।
१. अवक्त एवंगंगि-आ० ।
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