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________________ ६५० भगवती आराधना शत्रुभूते मित्रतां च मन्यमानः परितः परिधावति । समयसशङ्कोऽपि पदमधिगच्छति । दुरुत्तरकाललोहपञ्जरोदरगतो हरिरिव, वागुरापतितमृगकुलमिव, अन्यायकर्दमोन्मग्नो जरत्कुञ्जर इव हताशः, पाशबद्धो विहग इव, चारकावरुद्धस्तस्कर इव, व्याघ्रमध्यमध्यासीनोऽल्पबलो मृग इव, तदन्तिकोपयानजातसङ्कटः कुटपांशावकृष्टो जलचर इव, यत्रावस्थितो जनः कामबहलतमःपटलेनावियते। रागमहानागंरुपद्रुतः चिन्ताडाकिनीभिः कवलीक्रियते, शोकवरनुगम्यते, कोपपावकेन भस्मसात् क्रियते, दुराशालतिकाभिनिश्चलं बध्यते, प्रियविप्रयोगाशनिभिरनिशं शकलीक्रियते, प्रार्थितालाभशरशतैस्तूणीरतां नीयते, मायास्थविरिकया गाढमालिंग्यते, परिभवकठिनकुठारैर्विदार्यते, अयशोमलेन लिप्यते, मोहमहावनवारणेन हन्यते, पापघातकरवबोधः पात्यते, भयायःशलाकाभिस्तुद्यते, आयासवायसः प्रतिवासरं 'भक्ष्यते, ईमिष्या विरूपतां परिप्राप्यते, परिग्रहग्रहगृह्यते । यत्रावस्थितोऽसंयमाभिमुखो भवति । असूयाजायायाः प्रियतां याति, मानदानवाधिपतितां अनुभवति, विशालधवलचारित्रातपत्रत्रयछायासुखं न लभते, संसारचारकादात्मानं नापनयति, कर्मनिर्मूलनाय न प्रभवति, मरणविषपादपं न दहति, मोहघनशृङ्गलां न त्रोटयति, विचित्रयोनिमखसंचरणं न निषेधति । तत इत्थंभतादगहवासदोषात्त्यक्ता सन्तोऽपि दीक्षिता 'इदियकसायदोसे हिं' इन्द्रियकषायदोषान् । हि शब्द्रः समुच्चयार्थः । तेनैवमभिसंबध्यते 'पुणो हि' पुनरपि 'ते चैव' तानेव । 'गिडंति' गृह्णन्ति ॥१३१९॥ अनाश्रयमें आश्रयपना, शत्रुमें मित्रता मानता हुआ सब ओर दौड़ता है। भय और शंकासे युक्त होते हुए भी आश्रय प्राप्त करता है। जिससे निकलना कठिन है ऐसे कालरूपी लोहेके पीजरेके पेटमें गये सिंहकी तरह, जालमें फसे हिरणोंकी तरह, अन्यायरूपी कीचड़में फंसे बूढ़े हाथीकी तरह, पाशसे बद्ध पक्षीकी तरह, जेलमें बन्द चोरकी तरह, व्याघ्रोंके मध्यमें बैठे हुए दुर्बल हिरणकी तरह, जिसके पासमें जानेसे संकट आया है ऐसे जालमें फंसे मगरमच्छकी तरह, जिस गृहस्थाश्रममें रहनेवाला मनुष्य कालरूपी अत्यन्त गाढ़े अन्धकारके पटलसे आच्छादित हो जाता है। रागरूपी महानाग उसे सताते हैं। चिन्तारूपी डाकिनी उसे खा जाती है। शोकरूपी भेड़िये उसके पीछे लगे रहते हैं। कोपरूप आग उसे जलाकर राख कर देती है। दुराशारूपी लताओंसे वह ऐसा बँध जाता है कि हाथ पैर भी नहीं हिला पाता। प्रियका वियोगरूपी वज्रपात उसके टुकड़े कर डालता है। प्रार्थना करनेपर न मिलनेरूपी सैकड़ों बाणोंका वह तरकस बन जाता है अर्थात् जैसे तरकसमें बाण रहते हैं वैसे ही गृहस्थाश्रममें वांछित बस्तुका लाभ न होनेरूपी बाण भरे हैं। मायारूपी बुढ़िया उसे जोरसे चिपकाये रहती है। तिरस्काररूपी कठोर कुठार उसे काटते रहते हैं। अपयशरूपी मलसे धह लिप्त होता है । महामोहरूपी जंगली हाथीके द्वारा वह ता है। पापरूपी घातकोंके द्वारा वह ज्ञानशन्य कर दिया जाता है। भयरूपी लोहेकी सुइयोंसे कोचा जाता है। प्रतिदिन श्रमरूपी कौओंके द्वारा खाया जाता है। ईर्षारूपी काजलसे विरूप किया जाता है। परिग्रहरूपी मगरमच्छोंके द्वारा पकड़ा जाता है। जिस गृहस्थाश्रममें रहकर असंयमकी ओर जाता है। असूयारूपी पत्नीका प्यारा होता है। अर्थात् दूसरोंके गुणोंमें भी दोष देखता है, अपनेको मानरूपी दानवका स्वामी मानने लगता है। विशाल धवल चारित्ररूपी तीन छत्रोंकी छायाका सुख उसे नहीं मिलता। वह अपनेको संसाररूपी जेलसे नहीं छुड़ा पाता। कर्मोका जड़मूलसे विनाश नहीं कर पाता। मृत्युरूपी विषवृक्षको नहीं जला पाता। मोहरूपी मजबूत साँकलको नहीं तोड़ता। विचित्र योनियोंमें जानेको नहीं रोक पाता। दीक्षा १. भीष्यते आ० मु० । २. दोषान्मुक्ताः आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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