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________________ विजयोदया टीका ६४९ 'रुक्खादो सउणो उप्पडित्ताणं' वृक्षादुत्पत्य शकुनः । कीदृग्भूतात् ? 'अग्गिपरिक्खित्तादो' अग्निना समन्ताद्वेष्टितात् । 'सयमेव तं दुमं जह अदीदि' स्वयमेवासौ पक्षी अग्निपरिक्षिप्तद्रुममधिगच्छति । 'गोडणिमित्तं' स्वावासनिमित्तं ॥१३१६ ॥ लंघिज्जतो अहिणा पासुत्तो कोड़ जग्गमाणेण । उद्घविदो तं घेत्तुं इच्छदि जघ कोदुगहलेण || १३१७॥ 'लंबिज्जतो अहिणा' लङ्घ्यमानोऽहिना, 'कोइ पासुत्तो' कश्चित्प्रसुप्तः, 'जग्गमाणेण उट्ठविदो' जाग्रता उत्थापितः । 'जह तं घेत्तुमिच्छति' यथा सर्प ग्रहीतुमिच्छति, 'कोडुगहले ' कौतूहलेन ॥ १३१७॥ सयमेव वंतमसणं णिल्लज्जो णिग्घिणो सयं चेव । लोलो किविणो भुंजदि सुणहो जध असणतण्हाए ॥१३१८॥ 'सयमेव वंतमसणं' स्वयमेव वान्तमशनं । 'सुणहो पिल्लज्जो णिग्घणो' श्वा निर्लज्जः निर्घृणः । 'जहा' यथा । 'सयमेव भुजदि' स्वयमेव भृङ्क्ते । 'लोलो' आसक्तः । 'किविणों' कृपणः । असणतण्हाए' अशनतृष्णया ।। १३१८ ।। एवं केई गिवास दो समुक्का वि दिक्खिदा संता । इं दियकसाय दोसेहि पुणो ते चेव गिण्हति ।। १३१९॥ ' एवं केइ एवं केचित् । 'गिहिवास दोसमुक्का वि' गृहवासेभ्यो ये दोषास्तेभ्यो मुक्ता: । 'दिक्खिदा वि संता' दीक्षिता अपि सन्तः । 'इ'दियकसायदोसे' इन्द्रियकषायदोषान् । 'ते चेव' तांश्चैव गृहवासगतान् । 'गति' गृह्णन्ति । कीगृग्गृहवासो येन दुष्ट इति भण्यते । ममेदं भावाधिष्ठानः अनुपरतमायालोभोत्पादनप्रवीण जीवनोपायप्रवृत्तः कषायाणामाकरः परेषां पीडानुग्रहयोराबद्धपरिकरः पृथिव्यप्तेजोवायु वनस्पतिष्वनारत'वृत्तव्यापारो, मनोवाक्कायैः सचित्ताचित्ताने काणुस्थूलद्रविणग्रहणवर्द्धनोपजातायासः यत्र स्थितो जनोऽसारे सारतां, अनित्ये नित्यतां, अशरणे शरणतां, अशुचौ शुचितां दुःखे सुखितां, अहिते हिततां, असंश्रये संश्रयणीयतां, गा० - जैसे किसी सोते हुए मनुष्यपरसे सर्प जा रहा है । उसे कोई जागता हुआ मनुष्य उठाता है और वह उठकर कौतूहलवश उस सर्पको पकड़ना चाहता है ।। १३१७ || गा०---- जैसे कोई निर्लज्ज घिनावना कुत्ता अपने ही वमन किये भोजनको भोजनकी तृष्णावश लोलुपतासे खाता है ।। १३१८ ।। 10 गा० - टी० - वैसे ही गृहवासके दोषोंसे मुक्त कोई दीक्षा स्वीकार करके भी गृहवासके उन्हीं इन्द्रिय और कषायरूप दोषोंको स्वीकार करता है । गृहवासको बुरा क्यों कहा यह बतलाते हैंगृहस्थाश्रम 'यह मेरा है' इस भावका अधिष्ठान है, निरन्तर माया और लोभको उत्पन्न करनेमें दक्ष जीवनके उपायोंमें लगानेवाला है, कषायोंकी खान है, दूसरोंको पीड़ा देने और अनुग्रह करनेमें तत्पर रहता है, पृथिवी जल आग वायु और वनस्पतिमें उसका व्यापार सदा चला करता है, मन वचन कायसे सचित्त अचित्त अनेक सूक्ष्म और स्थूल द्रव्यों के ग्रहण और बढ़ाने के लिए उसमें प्रयास करना होता है । उसमें रहकर मनुष्य असारमें सारता, अनित्य में नित्यता, अशरण में शरणता, अशुचिमें शुचिता, दुःखमें सुखपना, अहितमें हितपना, १. रजवृत्तव्यावृत्तव्या-आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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