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विजयोदया टीका
७३३ इय दुल्लहाए बोहीए जो पमाइज्ज कह वि लद्धाए ।
सो उल्लट्टइ दुक्खेण रदणगिरिसिहरमारुहिय ॥१८६५।। 'इय दुल्लहाए वोहीए' उक्तेन क्रमेण दुर्लभायां दीक्षाभिमुखायां बुद्धो लब्धायामपि यः प्रमाद्यत्यसो रत्नगिरिशिखरमारुह्य ततः पतति प्रमादी ।।१८६५।।
फिडिदा संती बोधी ण य सुलहा होइ संसरंतस्स ।
पडिदं समुद्दमझे रदणं व तमंधयारम्मि ।।१८६६॥ 'फिडिदा संतो' बोधिविनष्टा सती दीक्षाभिमुखा बुद्धिः पुनर्न सुलभा भवति संसरतः । अन्धकारे समुद्रमध्ये पतितं रत्नमिव ॥१८६६।।
ते धण्णा जे जिणवरदिटे धम्मम्मि होंति संबुद्धा ।।
जे य पवण्णा धम्म भावेण उवढिदमदीया ॥१८६७।। स्पष्टोत्तरा गाथा । बोधित्ति ।।१८६७।। प्रस्तुतमर्थमुपसंहरति
इय आलंबणमणुपेहाओ धम्मस्स होंति ज्झाणस्स ।
ज्झायंतो ण वि णस्सदि ज्झाणे आलंबणेहिं मुणी ॥१८६८॥ 'इय आलंबणं' एवमालम्बनं भवन्त्यनुप्रेक्षा धर्मध्यानस्य । ध्याने प्रवृत्तो न विप्रणश्यति ध्याननिमित्तालम्बनेभ्यो यतिः । यो हि यद्वस्तुस्वरूपे प्रणिहितचित्तः सततं वस्तुयाथात्म्यान्न प्रच्यवते तस्याविस्मरणात् ।।१८६८॥
गा०-इस प्रकार उक्त क्रमानुसार दीक्षाके अभिमुख दुर्लभ बुद्धि प्राप्त होनेपर भी जो प्रमाद करता है वह प्रमादी सुमेरुके शिखरपर चढ़कर भी उससे गिरता है ।।१८६५।।
___गा०—जैसे अन्धकारमें समुद्रके मध्यमें गिरा रत्न पाना दुर्लभ है वैसे ही एक बार प्राप्त होकर नष्ट हुई दीक्षाभिमुख बुद्धिरूप बोधि संसारमें भ्रमण करनेवाले जीवको प्राप्त होना दुर्लभ है ॥१८६६।।
गा०-जो जिन भगवान्के द्वारा उपदिष्ट धर्ममें प्रबुद्ध होते हैं वे धन्य हैं। तथा जो दीक्षाभिमुख बुद्धिको प्राप्त करके भावपूर्वक धर्मको अपनाते हैं वे तो महाधन्य हैं ।।१८६७।।
बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षाका कथन समाप्त हुआ। प्रस्तुत चर्चाका उपसंहार करते हैं
गा०-इस प्रकार अनुप्रेक्षा धर्मध्यानका आलम्बन होती है। ध्यान करनेवाला साधु ध्यानमें निमित्त आलम्ब नोंका आश्रय लेनेसे ध्यानसे च्युत नहीं होता । जो जिस वस्तुके स्वरूपमें अपने मनको लगाता है वह उस वस्तुके यथार्थस्वरूपसे च्युत नहीं होता, क्योंकि वह उसे भूलता नहीं है ।।१८६८||
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