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________________ ३६६ भगवती आराधना समीचीनदर्शनस्य मुक्तिमार्गे प्रधानस्य मलं हि तद्यतिजने दूषणं । अतिचारहिमान्या हतं च रत्नत्रयकमलवनं न शोभते । परनिन्दा नोचैर्गोत्रस्यास्रवः । स्वयं च निन्द्यते बहषु जन्मसु निन्दकः । परस्य मनःसंतापं दुस्सहं सम्पादयतो असदुद्यकर्मबन्धः स्यात । साधजनोऽपि निन्दति स्वधर्मतनयं किमर्थमयं एवं अयशःपडून लिम्पतीति । एवमनेकानावहपरदोषप्रकटनं कः सचेतनः करोतीति ।।४७७॥ णिद्धं महुरं हिदयंगमं च पल्हादणिज्जमेगंते । कोइ तु पण्णविज्जंतओ वि णालोचए सम्मं ॥४७८॥ एवं प्रज्ञापनायां सत्यामपि यो नालोचयति इत्युत्तरसूत्रार्थः । तो उप्पीलेदव्वा खवयस्सोप्पीलएण दोसा से । वामेइ मंसमुदरमवि गदं सीहो जह सियालं ॥४७९।। 'तो' पश्चात । 'उप्पीलिदव्वा' अवपीडयितव्याः । के ? 'दोसा' दोषाः । कस्य ? 'से' तस्य । 'खवगस्य' क्षपकस्य । केन ? 'उप्पोलएण' अवपीडकेन-सूरिणा । अपसरास्मत्सकाशात, किमस्माभिर्भवतः प्रयोजनं ? यो हि स्वशरीरलग्नमलप्रक्षालनेच्छः स ढोकते काचच्छायानुसारिसलिलं सरः । यो वा महारोगोरगग्रस्तस्तदपनयनाभिलापवान् स वैद्यं ढोकते । एवं रत्नत्रयातिचारान्निराकतु मभिलषता समाश्रयणीयो गुरुजनः । भवतश्च रत्नत्रयशुद्धिकरणे नवादरः किमनया क्षपकत्वविडम्बनया । न चतुर्विधाहारपरित्यागमात्रायत्ता सल्लेखनेयं । पर मिथ्या दोषारोपणको नष्ट करने में तत्पर रहते हैं वे क्या अपयश फैला सकते हैं ? मोक्षमार्गमें प्रधान सम्यग्दर्शन है और यत्तिजनमें दूषण लगाना सम्यग्दर्शनका अतिचार है। रत्नत्रयरूपी कमलोंका वन यदि अतिचाररूपी हिमपातसे नष्ट हो तो वह शोभित नहीं होता। परनिन्दासे नीचगोत्र कर्मका आस्रव होता है । जो दूसरोंकी निन्दा करता है वह स्वयं अनेक जन्मोंमें निन्दाका पात्र बनता है। दूसरेके मनको असह्य सन्ताप देनेवालेके असातावेदनीयकर्मका बन्ध होता है। साधुजन भी निन्दा करते हैं कि अपने धर्मपुत्रको यह इस प्रकार अपयशरूप कीचड़से क्यों लिप्त करता है। इस तरह दूसरोंके दोषोंको प्रकट करना अनेक अनर्थोंका मूल है। कौन समझदार उसे करना पसन्द करेगा ॥४७७।। गा०---स्निग्ध, मधुर, हृदयग्राही और सुखकर वचनोंके द्वारा एकान्तमें समझानेपर भी कोई क्षपक अपने दोषोंको सम्यक्प से नहीं कहता ॥४७८।। गा०--तब जैसे सिंह स्यारके पेटमें गये मांसको भी उगलवाता है वैसे ही अवपीडक आचार्य उस क्षपकने अन्तरमें छिपे हुए मायाशल्य दोषोंको बाहर निकालता है ॥४७९।। टी०-हमारे सामनेसे दूर हो जाओ। आपको हमसे अब क्या प्रयोजन है ? जो अपने शरीरमें लगे मलको धोना चाहता है वह काचके समान निर्मल जलवाले सरोवरके पास जाता है। अथवा जो महान् रोगरूपी. सर्पसे डंसा गया है और उसे दूर करना चाहता है वह वैद्यके पास जाता है। इसी प्रकार जो रत्नत्रयमें लगे अतिचारोंको दूर करना चाहता है उसे गुरुजनके पास जाना चाहिए । आपको अपने रत्नत्रयकी शुद्धि करनेमें आदर नहीं है तब इस क्षपकका रूप धारण करनेसे क्या लाभ ?. यह सल्लेखना केवल चार प्रकारके आहारका त्याग करनेमात्रसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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