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________________ विजयोदया टीका ३६७ अपि तु कषायसल्लेखनायत्ता । संवरो निर्जरा च कषाया ह्यभिनवकर्मादाने, बन्धे, स्थितिविधाने चोद्यताः परिहरणीयाः । तेषु च कषायेषु मायाति निकृष्टा तिर्यग्योनि निर्वर्तनप्रवणा । तां त्यक्तुमसमर्थस्यापि प्रविष्टस्य भवतः संसारोदधेस्तिर्यग्भवावतं । ततो निःसरणमतिदुष्करं । वस्त्रमात्र परित्यागेनैव निर्ग्रन्थताभिमानोद्वहनमप्यसत्यं, सत्येवं तिर्यञ्चोऽपि निर्ग्रन्थाः स्युः । चतुर्दशप्रकारस्याभ्यन्तरपरिग्रहस्य त्यागाद्भावनैर्ग्रन्थ्यं समवतिष्ठते । तदेव हि मुक्तेरुपायः । भावनैर्ग्रन्थ्यस्य उपाय इति दशविधवाह्यग्रन्थत्याग उपयोगी मुमुक्षोः । न हि जीवपुद्गलद्रव्यसन्निधानमात्राधीनः कर्मबन्धः । अपि तु तन्निमित्तजीव परिणामालम्बनः । अतिचारवन्ति दर्शनादीनि न मुक्तेरुपायः । ' सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इति किन्न भवतः श्रुतिगोचरमायातं जैनं वचः ? समीचीनता हि दर्शनज्ञानचारित्राणां निरतिचारता । सा च गुरूपदिष्टप्रायश्चित्ताचरणे । गुरवोऽपि कृतालोचनायैव प्रायश्चित्तं प्रयच्छन्ति । ततो भवान्दूरभव्यः अभव्यो वा । आसन्नभव्यत्वे सति किमेवं महामायाशल्यं भवति ? नैव यतिजनवन्दनार्होऽसि । 'समणं वंदेज्ज मेधावी संजदं सुसमाहिदं' इति वचनात् । जीवितमरणयोर्लाभालाभ योनिन्दाप्रशंसयोश्च समानचित्ततया समानो भवति । अतिचारनिवेदने मां निन्दन्ति न प्रशंसन्तीति भवता नालोच्यते । तत्कथं समानोऽसि ? कथं वा वन्द्यः ? 'सीहो जहा सियालं उदरमवि गदं पि मंस वामेदि' सिंहो यथा शृगालमुदरप्रविष्टमपि मांसमुद्गारयति तद्वन्मायाशत्यमन्तर्लीनं निस्सारयत्यवपीडकः ॥ ४७९ ॥ नहीं होती । किन्तु इसके लिए कषायको कृश करना चाहिए। तभी यह सल्लेखना होती है । तथा संवर और निर्जरा भी करना चाहिए। कषाय तो नवीन कर्मोंके ग्रहण, बन्ध और उनके स्थितिबन्धको करती है अतः वह त्यागने योग्य है । 1 उन कषायों में माया अत्यन्त खराब है वह तिर्यञ्चगतिमें ले जाती है । आप उसे छोड़ने में असमर्थ हैं अतः आप संसार समुद्र के तिर्यञ्च भवरूपी भँवरमें फँस गये हैं । वहाँसे निकलना अत्यन्त कठिन है । वस्त्रमात्रके त्यागसे अपनेको निर्ग्रन्थ माननेका अभिमान करना भी झूठा है । यदि कोई इतने से ही निर्ग्रन्थ हो तो पशु भी निर्ग्रन्थ कहे जायेंगे । चौदह प्रकारकी अभ्यन्तर परिग्रह के त्यागसे भावनैर्ग्रन्थ्य होता है । वही मुक्तिका उपाय है । भावनैग्रन्थ्यका उपाय है दस प्रकारकी बाह्यपरिग्रहका त्याग | वह मुमुक्षुके लिए उपयोगी है । जीव और पुद्गलद्रव्यके सम्बन्धमात्रसे कर्मबन्ध नहीं होता, किन्तु उसके निमित्तसे होनेवाले जीवके परिणामोंके निमित्तसे कर्मबन्ध होता है । अतिचार सहित सम्यग्दर्शन आदि मुक्तिके उपाय नहीं है । 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्षका मार्ग है ।' क्या यह जिनागमका वचन आपके कानों में नहीं गया ? निरतिचार होना ही दर्शन ज्ञान और चारित्रकी समीचीनता है । और वह निरतिचारता गुरुके द्वारा कहे प्रायश्चित्तको करनेपर ही होती है । गुरु भी उसीको प्रायश्चित्त देते हैं जो आलोचना करता है। अतः आप या तो दूर भव्य हैं या अभव्य हैं । यदि निकट भव्य होते तो इस प्रकारका महामायारूप शल्य क्यों होता । तुम यतिजनोंके द्वारा वन्दना करने योग्य नहीं हो । क्योंकि आगममें कहा है 'बुद्धिमानको संयमी और सम्यक्रूपसे समाहित श्रमणकी वन्दना करनी चाहिए ।' जीवनमरणमें, लाभ अलाभ में, निन्दा प्रशंसा में जिसका चित्त समान रहता है वही श्रमण या समण होता है । 'दोष कहनेपर लोग मेरी निन्दा करेंगे, प्रशंसा नहीं करेंगे' इसलिए आप आलोचना नहीं करते । तब आप कैसे समण (समान) है और कैसे वन्दनीय हैं। इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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