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________________ भगवती आराधना इदृगवपीडको भवतीत्याचष्टे: उज्जस्सी तेजस्सी वच्चस्सी पहिदकित्तियायरिओ। सीहाणुओ य भणिओ जिणेहिं उप्पीलगो णाम ॥४८०॥ यो यद्धितकामस्स तं बलात्तत्र प्रवर्तयति । यथा हिता माता बालं घृतपाने इत्येतदुत्तरसूत्रेणाचष्टे पिल्लेदण रडतं पि जहा बालस्स मुहं विदारित्ता। पज्जेइ घदं माया तस्सेब हिदं विचितंती ।।४८१।। 'पिल्लेदूण मुहं विदारिता घवं पज्जेदि' यथा जननी बालहितचिन्तोद्यता पूत्कुर्वन्तमपि बालं अवष्टभ्य मुखं विदार्य घृतं पाययति ॥४८॥ दार्टान्तिकेनायोजयति तह आयरिओ वि अणुज्जयस्स खवयस्स दोसणीहरणं । कुणदि हिदं से पच्छा होहिदि कडु ओसहं वत्ति ।।४८२॥ 'तह तथा । आयरिओ' आचार्योऽपि । 'अणुज्जयस्स खवगस्स' अनृजोः क्षपकस्य । 'दोसणीहरणं कुणइ' मायाशल्यनिरासं करोति । 'कडुगोसधं वत्ति' कटुकमौषधमिव । 'से' तस्य । 'पच्छाहिदं होदि' पश्चाद्धितं भवतीति ॥४८२॥ यो न निर्भर्त्सयति दोषं दृष्ट्वापि प्रियमेव वक्ति स गुरुः शोभन इति न भवद्भिर्मन्तव्यमित्युपदिशति जिन्माए वि लिहंतो ण भद्दओ जत्थ सारणा णत्थि । पाएण वि ताडितो स भददओ जत्थ सारणा अत्थि ॥४८३।। कहकर अवपीड़क आचार्य उसके मुखसे दोष उगलवाते हैं ॥४७९।। अवपीड़क आचार्य ऐसे होते हैं, यह कहते हैं गा०-जो ओजस्वी-बलवान्, तेजस्वी-प्रतापवान्, वर्चस्वी-प्रश्नोंका उत्तर देने में कुशल, प्रसिद्ध कीर्तिशाली और सिंहके समान आचार्य होते हैं उन्हें जिनभगवान्ने उत्पीड़क नामसे कहा है ।।४८०॥ जो जिसका हित चाहता है वह उसे बलपूर्वक उसमें लगाता है जैसे हित चाहनेवाली माता बालकको बलपूर्वक घी पिलाती है यह आगेकी गाथासे कहते हैं गा०-जैसे बालकके हितकी चिन्तामें तत्पर माता चिल्लाते हुए भी बालकको पकड़कर उसका मुंह फाड़कर घी पिलाती है ॥४८१।। उक्त दृष्टान्तको दान्तिके साथ जोड़ते हैं गा०-उसी प्रकार आचार्य भी कुटिल क्षपकके मायाशल्यरूप दोषको निकालते हैं। और वह कडुवी औषधिकी तरह पीछे उस क्षपकके लिए हितकारी होता है ॥४८२।। जो क्षपकके दोष देखकर भी उसका तिरस्कार नहीं करता, प्रियवचन ही बोलता है वह गुरु उत्तम है ऐसा आप न सोचना, यह उपदेश क्षपकको देते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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