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________________ विजयोदया टीका ३६५ सिदव्वो' आत्मा स्थापयितव्यः । तत्र गुणमाचष्टे 'धुवा खु आराहणा तत्थ' निश्चिता रत्नत्रयाराधना तत्र । आयोपायः ॥४७५।। अवपीडकत्वं व्याख्यातुकामः संबध्नाति पूर्वेण उपायदर्शित्वेन आलोचणगुणदोसे कोई सम्म पि पण्णविज्जंतो। तिव्वेहिं गारवादिहिं सम्म णालोचए खवए ॥४७६।। 'आलोचणगुणदोसे' आलोचनाया गुणदोषान् । 'कोई कश्चित् । 'सम्मपि पण्णविज्जंतो' सम्यगवबोध्यमानोऽपि । 'खवगो णालोचए सम्म' क्षपकः सम्यक् न कथयेत् । केन हेतुना ? 'तिम्वेहि गारवादिहि' तीवारवादिभिः आदिशब्देन लज्जाभयक्लेशासहत्वं च गृह्यते ॥४७६॥ एवमनालोचयतोऽपि भावः प्रशान्ति नेतव्यो निर्यापकेनेत्येतद्याचष्टे णिद्धं मधुरं हिदयंगमं च पल्हादणिज्जमेगते । तो पल्हावेदव्वो खवओ सो पण्णवंतेण ॥४७७॥ 'णिद्धं' स्नेहवत् । 'मधुरं' श्रुतिसुखं । 'हिवयंगम' हृदयानुप्रवेशि । 'पल्हादणिज्जं' सुखदं । 'एगते' एकान्ते । 'पल्हावेदव्वो' शिक्षयितव्यः । 'खवगो' क्षपकः । 'सो' सः । आत्मापराधं यो न कथयति । 'पण्णवं. तेण' प्रज्ञापयता सूरिणा। आयुष्मन् ! उपलब्धसन्मार्गरत्नत्रयनिरतिचारकरणे समाहितचित्त ! अतिचारं निवेदय लज्जां, भयं, गारवं च विहाय । गुरुजनो हि मात्रा पित्रा च सदृशः, तेषां कथने का लज्जेति । स्वदोषमिव न प्रख्यापयन्ति परेषां यतीनां । यतिधर्मस्य वा अवर्णवादं प्रयत्नेन विनाशयितुमद्यताः किमयशः प्रथयन्ति । है और गुणसे युक्त होता है। अतः क्षपकको गुणदोष दिखलानेवाले आचार्यके पादमूलमें अपनेको रखना चाहिए। ऐसा करनेसे रत्नत्रयकी आराधना होना निश्चित है ।।४७५।। आयोपायका कथन समाप्त हुआ। ___ अब अवपीडक गुणका कथन करनेकी इच्छासे उसका उक्त उपायदर्शित्व गुणके साथ सम्बन्ध जोड़ते हैं गा०-कोई क्षपक आलोचनाके गुण और दोषोंको अच्छी तरह समझनेपर भी तीव्र गारव, आदिके कारण सम्यक्रूपसे अपने दोषोंको नहीं कहता। यहाँ आदि पदसे लज्जा, भय और कष्टको सहन न करना लिए गये हैं ॥४७६।। __ इस प्रकार आलोचना न करनेवाले क्षपकके भावको निर्यापक आचार्यको शान्त करना चाहिए, यह कहते हैं गा०-टो-जो अपना अपराध नहीं कहता उस क्षपकको समझानेवाले आचार्यको एकान्तमें स्नेहसे भरे, कानोंको सुखकर और हृदयमें प्रवेश करनेवाले सुखदायक वचनोंसे शिक्षा देना चाहिए। प्राप्त सन्मार्ग रत्नत्रयके निरतिचार पालनमें सावधान आयुष्मन् ! लज्जा, भय और मान छोड़कर दोषोंको निवेदन करो। गुरुजन माता-पिताके समान होते हैं उनसे कहने में लज्जा कैसी ? वे अपने दोषकी तरह दूसरे यतियोंके भी दोष किसीसे नहीं कहते । जो यतिधर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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