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________________ भगवती आराधना ' जस्स वि' यस्यापि । 'अव्वभिचारी' अनिराकार्यो । 'दोसो' दोषः । 'तिट्ठाणिगो' स्थानत्रयभवः मेहने वृषणयोश्च भवः औषधादिनानपसार्यः । ' सोऽपि ' खु शब्द एवकारार्थः स च 'गेण्हेज्ज' इत्यनेन संबंधनीयः । गृण्हीयादेव किं ? 'उस्सग्गिगं लिंगं' औत्सर्गिकं अचेलतालक्षणं । क्व 'विहारम्मि' विहारे वसतौ, 'संथारगदे' संस्तरारूढः संस्तरारोहणकाले । एवं संस्तरारूढस्यैव औत्सर्गिकं नान्यत्रेत्याख्यातं भवति ॥७७॥ अपवाद लिंगस्थानां प्रशस्तलिगानां सर्वेषामेव किमौत्सर्गिकलिंग तेत्यस्यामारेकायां आह आवसधे वा अप्पाउग्गे जो वा महदिओ हिरिमं ॥ मिच्छजणे सजणे वा तस्स होज्ज अववादियं लिंगं ॥ ७८ ॥ ११४ 'आवसधे वा' निवासस्थाने । 'अप्पा उग्गे अप्रायोग्ये अविविक्ते । 'अपवादिकलिंगं' हवदित्ति' शेषः । 'जो वा महढिगो' महर्द्धिक: । 'हिरिमं' हीमान् लज्जावान् । तस्यापि 'होज्ज' भवेत् अपवादिकं लिंगं । 'मिच्छे' वा मिथ्यादृष्टी । 'सजणे' स्वजनो बंधुवर्गो । 'होज्ज' भवेत् । अपवादिकलिंगं सचेललिंगं ॥७८॥ पूर्वनिर्दिष्टोत्सर्गलिंगस्वरूपनिरूपणार्थोत्तरगाथा अच्चेलक्कं लोचो वोसट्टसरीरदा य पडिलिहणं ॥ एसो हु लिंगकप्पों चदुव्विहो होदि उस्सग्गे ॥७९॥ गा० - जिसके भी लिंग और दोनों अण्डकोष इन तीन स्थानोंमें ऐसा दोष है जिसे औषध आदिसे भी दूर नहीं किया जा सकता। वह भी वसतिकामें संस्तरेपर आरूढ़ होनेपर औत्सर्गिक लिंगको अवश्य ग्रहण करे || ७७|| टी० - जिसके तीनों स्थामोंमें ऐसा दोष है जिसे चिकित्सासे भी नहीं दूर किया जा सकता । वह भी जब भक्त प्रत्याख्यान करता है तो उसे वसति में संथरे पर रहना होता है अतः उस समय उसे भी औत्सर्गिक लिंग ग्रहण करना आवश्यक है । इस प्रकार वह संस्तर पर आरूढ़ होते हुए भी औत्सर्गिक लिंगका पात्र होता है उससे पहले नहीं (क्योंकि सदोष लिंग वाला नग्नता का पात्र नहीं होता ) ॥७७॥ क्या प्रशस्त लिंग वाले सभी अपवाद लिंगके धारकोंको औत्सर्गिक लिंग लेना आवश्यक है इस शङ्काका उत्तर देते हैं गा० - जो महान सम्पत्तिशाली है अथवा लज्जालु है अथवा जिसके स्वजन बन्धुवर्ग मिथ्यादृष्टि विधर्मी है । उसके लोगोंके आवागमनके कारण अयोग्य निवास स्थानमें आपवादिक लिंग होता है ॥ ७८ ॥ टी० - जो प्रतिष्ठित धन सम्पन्न है या जिन्हें सबके सामने लज्जा लगती है या जिनका परिवार विधर्मी है उन्हें सार्वजनिक स्थानमें नग्न लिंग नहीं देना चाहिये । सवस्त्र लिंग ही उनके योग्य है || ७८ ॥ पहले कहे औत्सर्गिक लिंगका स्वरूप कहते हैं गा० - अचलता, हाथसे केश उखाड़ना, शरीर से ममत्व त्याग और प्रतिलेखन यह चार प्रकारका लिंगभेद औत्सर्गिक लिंगमें होता है ॥ ७९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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