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________________ विजयोदया टीका ११५ अच्चेलदकमिति । अच्चेलक्कं अचेलता । लोचो केशोत्पाटनं हस्तेन । वोसट्टसरीरदा य व्युत्सृष्टशरी-. रता च । पडिलिहणं प्रतिलेखनं । एसो दु एषः । लिंगकप्पो लिंगविकल्पः । चउविहो चतुर्विधः भवति । उस्सग्गे औत्सगिकसंज्ञिते लिंगे । अतीताभिर्गाथाभिः पुरुषाणां भक्तप्रत्याख्यानाभिलाषिणां लिंगविकल्पोऽभिदृष्टनिश्चयः । अधुना स्त्रीणां तदथिनीनां लिंगमुत्तरया गाथया निरूप्यते इत्थीवि य जं लिंगं दिळं उस्सग्गियं व इदरं वा ।। तं तत्थ होदि हु लिंगं परित्तमुधिं करेंतीए ॥८॥ 'इत्योवि य' स्त्रियोऽपि । 'जं लिंगं' यल्लिगं । 'दिठं' दृष्टं आगमेऽभिहितं । 'उस्सग्गियं व' औत्सगिकं तपस्विनीनां । 'इदरं वा' श्राविकाणां । 'त' तदेव । 'तत्थ' भक्तप्रत्याख्याने । 'होदि' भवति । लिंगं तपस्विनीनां प्राक्तनम् । इतरासां पुंसामिव योज्यम् । यदि महद्धिका लज्जावती मिथ्यादृष्टिस्वजना च तस्याः प्राक्तनं लिंगं विविक्ते त्वावसथे, उत्सर्गलिंग वा सकलपरिग्रहत्यागरूपं । उत्सर्गलिंगं कथं निरूप्यते स्त्रीणामित्यत आह-तं' तत उत्सर्ग लिंगं । 'तत्य' स्त्रीणां 'होदि' भवति । 'परित्तं' अल्पं । 'उवधि' परिग्रहं । 'करतीए' 'कुर्वत्याः '। टो०-अचेलक अर्थात् वस्त्रादिका अभाव, केश लोच, शरीरका संस्कार आदि न करना और पीछो यह चार औत्सर्गिक लिंगके प्रकार है। औत्सर्गिक लिंगमें ये चार बातें होना आवश्यक हैं ॥ ७९ ॥ ___पिछली गाथाओंसे भक्त प्रत्याख्यानके अभिलाषी पुरुषोंके लिंगका निश्चय किया। अब उसकी अभिलाषी स्त्रियोंका लिंग कहते हैं गा०-स्त्रियोंके भी जो लिंग औत्सर्गिक अथवा अन्य आगममें कहा है। वही लिंग अल्प परिग्रह करती हुईके भक्त प्रत्याख्यानमें होता है ।। ८० ।। ____टो०-स्त्रियोंके आगममें जो लिंग कहा है तपस्विनी स्त्रियोंके औत्सर्गिक और श्राविकाओं के आपवादिक । वही लिंग उनके भक्त प्रत्याख्यानमें भी होता है। अर्थात् तपस्विनी स्त्रियोंके औत्सर्गिक लिंग होता है और शेषके पुरुषोंकी तरह जानना । अर्थात् यदि स्त्री किसी ऐश्वर्यशाली परिवारसे सम्बद्ध है या लज्जाशील है अथवा उसके परिवार वाले विधर्मी हैं तो उसे एकान्त स्थानमें सकल परिग्रहके त्यागरूप उत्सर्ग लिंग दिया जा सकता है। प्रश्न होता है कि स्त्रियोंके . उत्सर्ग लिंग कैसे सम्भव है ? तो उसका उत्तर यह है कि परिग्रह अल्प कर देनेसे स्त्रीके उत्सर्ग लिंग होता है ।। ८० ॥ विशेषार्थ-तपस्विनी स्त्रियाँ एक साड़ी मात्र परिग्रह रखती है किन्तु उसमें भी ममत्व त्यागनेसे उपचारसे निर्ग्रन्थताका व्यवहार होता है। किन्तु श्राविकाओंके उस प्रकारके ममत्वका त्याग न होनेसे उपचार से भी निर्ग्रन्थताका व्यवहार नहीं होता । भक्त प्रत्याख्यानमें तपस्विनियोंके अयोग्य स्थानमें तो पूर्व लिंग ही होता है। शेषके पुरुषोंकी तरह जानना । सारांश यह है कि तपस्विनी स्त्री मृत्युके समय वस्त्र मात्रको भी छोड़ देती है। अन्य स्त्री यदि योग्य स्थान होता है तो वस्त्र त्याग करती है। यदि वह धन सम्पन्न, या लज्जाशील या मिथ्यादष्टि परिवारसे सम्बद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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