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________________ विजयोदया टीका 'fromrasगाए' संस्काररहितायां । 'सेज्जाए' वसतौ ॥ ६३५ || निर्दोषा वसतिस्तर्हि का आश्रयितव्या इत्यत्र वसतिं व्यावर्णयति - सुहणिक्खवणपवेसण घणाओ अवियडअगंधयाराओ । दो तिणि वि 'सीओ घेत्तव्वाओ विसालाओ ||६३६|| 'सुहणिक्खवणपर्व सणघणाओ' अक्लेशप्रवेशनिर्गमन घना | 'अवियड प्रणंधरयाराओ' अनन्धकाराश्च जघन्यतो द्वे शाले ग्राह्ये । एकत्र क्षपको वसति, अन्यस्यां अन्ये यतयो बाह्यजनाश्च धर्मंश्रवणार्थमायाताः । विवृतद्वारतया शीतवातादिप्रवेशात्त्वगस्थिमात्रतनोर्दुस्सहं दुःखं स्यात् । शरीरमलत्यागोऽपि कथमप्रच्छन्ने क्रियेत । अन्धकार बहुले असंयमः स्यात् । असुखनिष्क्रमणप्रवेशनायां आत्मविराधना संयमविरा अविवृतद्वारा धना च ॥ ६३६ ॥ अन्यच्चाचष्टे— घणकुड्डे सकवाडे गामबहिं बालबुढ्ढगणजोग्गे । उज्जाणघरे गिरिकंदरे गुहाए व सुण्णहरे || ६३७॥ 'घणकुड्डे' दृढकुडये । 'सकवाडे' कपाटसहिते । 'गामबह' ग्रामबाह्ये देशे । 'बालबुड्ढगणजोग्गे' बालानां वृद्धानां गणस्य चतुविधस्य योग्ये उद्यानगृहे । 'गुहाए' गुहायां । वा 'सुण्णघरे' शून्यगृहे वा । 'संथारो होदित्ति' क्रियापदाभिसम्बन्धः ।। ६३७।। आने वाले प्राणी आकर वास नहीं करते, तथा जो संस्कार रहित वसति है उसमें साधु निवास करते हैं ॥६३५॥ ४३३ तब कैसी निर्दोष वसति में रहना चाहिए, इसके उत्तर में वसतिका वर्णन करते हैं गा० - टी० - जिसमें विना कष्टके सुखपूर्वक प्रवेश और निर्गमन होता हो, जिसका द्वार खुला न हो तथा जिसमें अन्धकार न हो। ऐसी दो अथवा तीन विशालवसतिका ग्रहण करनी चाहिए । जघन्यसे दो वसति लेना चाहिए। एकमें क्षपक रहता है । दूसरीमें अन्य यति और धर्म सुनने के लिए आये बाहरके आदमी रहते हैं । [ यदि तीन ग्रहण करते हैं तो एकमें क्षपक, एकमें अन्य यति और एकमें धर्मोपदेश होता है] यदि वसतिका द्वार खुला हो तो शीतवायु आदि प्रवेशसे हाडचाममात्र शेष रहे क्षपकको दुःसह दुःख होता है । खुले स्थान में वह मलमूत्रका त्याग भी कैसे करेगा ? अन्धेरी वसति में असंयम होगा - जीवजन्तु दृष्टिगोचर नहीं होंगे। सुखपूर्वक आना जाना सम्भव न होनेसे अपनी भी विराधना होती है और संयम की भी विराधना होती है ।।६३६|| और भी कहते हैं गा० - जिसकी दीवार मजबूत हो, कपाट सहित हो, गाँव के बाहर ऐसे प्रदेश में हो जहाँ बच्चे बूढ़े और चार प्रकारका संघ जा सकता हो, ऐसी वसतिमें, उद्यानघर में, गुफामें अथवा शून्यघरमें क्षपकका संथरा होता है ||६३७|| १. शालाओ - मु० । २. मना अपि-आ० मु० । ५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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