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________________ ४३२ भगवती आराधना चारणकोट्टगकल्लालकरकचे पुष्फदयसमीपे य । एवंविधवधी होज्ज समाधीए वाघादो || ६३३॥ 'चारणको ट्टगकल्लालक रकचे' चारणकोट्टकशालायां, रजकशालायां, रसवणिक्शालायां । पुष्पवाटस्य वा जलाशयस्य वा समीपभूतायां । 'एवंविधवसधीए' ईदृश्यां वसतौ वसतः । 'होज्ज बाघादो' भवति व्याघातः । कस्य ? ' समाधीए' समाधेश्चित्तं काम्यस्य । इन्द्रियविषयाणां मनोज्ञानां शब्दानां रूपादीनां च सन्निधानाच्छन्दबहुलत्वाच्च ध्यानविघ्नो भवतीति प्रतिषिध्यते व्यावणिता वसतिः ॥ ६३३॥ व तर्हि कथं तिष्ठत्यस्योत्तरमाचष्टे पंचिदियप्पयारो मणसंखोभकरणो जहिं णत्थि । चिट्ठदि तहिं तिगुत्तो ज्झाणेण सुहप्पवत्तेण ||६३४|| 'पंचिदियत्पयारो' पञ्चानामिन्द्रियाणां स्वविषयाभिमुख्येनादरात् प्रकृष्टं गमनं । 'जहि' यस्यां वसतो नास्ति । कीदृगिन्द्रियप्रचारो 'मणसंखोभकरणो' मनः संक्षोभकारी । 'ताह' तस्यां वसतौ । 'चिट्ठदि' तिष्ठति । 'तिगुत्तो' कृतमनोवाक्कायसंरक्षकः । 'ज्झाणेण' ध्यानेन । 'सुहप्पवत्तेण' सुखप्रवृत्तेन ॥६३४|| मनःसंक्षोभहेतुः पञ्चानामिन्द्रियाणां प्रचारो यस्यां वसतौ नास्ति तस्यां सर्वस्यां तिष्ठति न वेत्याचष्टेउगम उप्पादण सणाविसुद्धा अकिरियाए हु | वसई असंसत्ताए णिप्पाहुडियाए सेज्जाए || ६३५ ।। 'उग्ग मउप्पादणएसणाविसुद्धाए' उद्गमोत्पादनंषणादोषरहितायां । 'अकिरियाए हु' 'आत्मानमुद्दिश्य उपलेपनमार्जन क्रियारहितायां । 'वसदि' वसति आस्ते । 'असंसत्ताए' तत्रस्थैरागन्तुकैश्च सवर्वजितायां । गा० - टी० - चारणशाला, पत्थरका काम करनेवालोंका स्थान, कलालोंका स्थान, आरासे चीरने वालोंका स्थान, पुष्पवाटिका, मालाकारका स्थान, जलाशयके समीपका स्थान वसतिके योग्य नहीं है । ऐसी वसतिका में रहनेसे समाधिका व्याघात होता है । इन्द्रियोंके विषय मनोज्ञ शब्द रूप आदिके सम्बन्धसे तथा शब्दोंकी बहुलता - होहल्लेसे ध्यान में विघ्न होता है । इसलिए ऊपर कही वसतिकाओंका निषेध किया है || ६३३ || तब कहाँ रहते हैं ? इसका उत्तर देते हैं- गा०—– जहाँ मनको संक्षोभ करने वाला पाँचों इन्द्रियोंका अपने विषयोंमें उत्सुकतापूर्वक गमन संभव नहीं है उस वसतिका में साधु क्षपक मन वचन कायको गुप्त करके, सुखपूर्वक ध्यान करता हुआ निवास करता है || ६३४ || मनको संक्षोभका कारण पांचों इन्द्रियोंका विषयोंमें गमन जहाँ नहीं है ऐसी सब वसतिकाओं में क्या निवास करता हैं ? इसका उत्तर देते हैं Jain Education International गा० - जो वसति उद्गम उत्पादन और एषणा दोष से रहित होती है, अपने उद्देशसे जिसमें लिपाई पुताई आदि नहीं कराई गई है जिसमें उसी वसतिका में रहने वाले तथा वाहरसे १. आत्मना उप-आ० मु० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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