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________________ २५५ विजयोदया टीका आदा कुलं गणो पवयणं च सोभाविदं हवदि सव्वं । अलसत्तणं च विजडं कम्मं च विणिद्धयं होदि ।।२४४।। 'आदा कुलं गणो पवयणं च सव्वं सोभाविद हववित्ति' पदघटना । बाह्येन तपसा स्वयं कुलमात्मनो, गणं, स्वशिष्यसन्तानश्च शोभामपनीतो भवति । 'अलसत्तणं च' अलसत्वं च । 'विजडं' त्यक्तं भवति । दुर्धरतपःसमुद्योगात् 'कम्मं च विणिधुदं' कर्म च संसारमूलं विशेषेण निद्भूतं भवति ॥२४४।। बहुगाणं संवेगो जायदि सोमत्तणं च मिच्छाणं । मग्गो य दीविदो भगवदो य अणुपालिया आणा ॥२४५।। 'बहुगाणं' बहूनां । 'संवेगो जायदि' संसारभीरुता जायते । यथा सन्नद्धमेकं दृष्टवा नूनमत्र भयमस्ति किचिदहमपि सन्नह्यामीति जन: प्रवर्तते । एवं तपस्युद्यतमवलोक्य संसारभ यादयमेवं क्लिश्यति तदस्माकमप्यनिवारितमेवेति विभेति । भीतश्च प्रतिक्रिया प्रारभते । 'सोमत्तणं च मिच्छाणं' मिथ्यादृष्टीनां सौम्यता सुमुखता वा जायते । दुर्द्धरमिदं महत्तपो यतीनां इति प्रसन्ना भवंतीति यावत् । 'मग्गो य दीविदो' मार्गश्च मुक्तेः प्रकाशितो भवति यतीनां बाह्येन तपसा करणभूतेन । न तपसा विना कर्मणां निर्जराऽस्तीति 'भगवदो य अणुपालिदा आणा' भगवतः आज्ञा चानुपालिता भवति यतिना बाह्येन तपसा करणेन ॥२४५।। देहस्स लाघव संवेगो जायदि सोमत्तणं च मिच्छाणं । जवणाहारो संतोसदा य जहसंभवेण गुणा ।।२४६।। 'देहस्स लाघवं' शरीरस्य लाघबगुणो बाह्येन तपसा भवति । लघुशरीरस्य आवश्यकक्रियाः सुकरा भवन्ति । स्वाध्यायध्याने चाक्लेशसम्पाद्ये भवतः । गेहस्स लूहणं' शरीस्नेहविनाशनं च गुणः । शरीरस्नेहादेव उक्त पाँच गाथामें जो कुछ कहा है उसका सम्बन्ध 'बाह्यतपसे होता है' इस वाक्यके साथ लगाना चाहिए ॥२४३।। टो०-बाह्य तपसे आत्मा, अपना कुल, गण, अपनी शिष्य परम्परा शोभित होती है । आलस्य छूट जाता है। और दुर्धर तप करनेसे संसारका मूल कर्म विशेषरूपसे नष्ट होता है ॥२४४॥ टो०-यतिके बाह्य तप करनेसे बहुतसे लोगोंको संसारसे भय उत्पन्न होता है। अवश्य ही यहाँ कुछ भय है मैं भी तैयारी करता हूँ । इस प्रकार लोग तपमें प्रवृत्त होते हैं। तपमें उद्यत जनको देखकर 'यह संसारके भयसे इस प्रकारका कष्ट उठाता है । हम भी इससे बच नहीं सकते ऐसा मान संसारसे डरता है और डरकर उसका प्रतीकार करता है। तपस्वीको देखकर मिथ्यादृष्टियोंमें भी सौम्यता आ जाती है। यतियोंका यह महान तप दुर्द्धर है इस प्रकार अपनी प्रसन्नता प्रकट करते हैं। यातियोंके बाह्य तप करनेसे मुक्तिका मार्ग प्रकाशित होता है। क्योंकि तपके बिना कर्मोंकी निर्जरा नहीं होती । और भगवान्की आज्ञाका अनुपालन होता है ।।२४५॥ टी०-बाह्य तपसे शरीरमें हलकापन आता है। जिसका शरीर हल्का होता है वह आवश्यक क्रियाओंको सरलतासे करता है। तथा स्वाध्याय और ध्यान विना कष्टके होते है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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