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________________ ७७० भगवती आराधना महागुहा भीमतमः प्रवेशात् सदाप्यगाधाम्भसि मज्जनाच्च । घनाच्चिरं चारकरोधनाच्च स्याटेहिनः कष्टतरोऽज्ञभावः ॥७॥ तमःप्रवेशोऽम्भसि मज्जनं च स्याददःखकृच्चारकरोधनं च । जाताविहेकत्र भवांस्त्वनन्तानज्ञानजं दुःखमनुप्रयाति ॥८॥ नालं विशालं नयनं तृतीयं श्रुतं च मत्या रहितो गृहीतुम् । अन्धोऽपि यस्मिन् सति याति मार्गे क्षेमे शिव मोक्षमहापुरस्य ॥९॥ एवं भतामज्ञतामापादयति ज्ञानावरणं न किञ्चित्तन्निवारणक्षमं शरणमस्ति । 'ण तस्स दिस्सदि उवाओ' नव तस्य कर्मणो निवारण उपायो दृश्यते । असदवेदस्य कर्मण उदयात 'अमदं पि विसं होदि' अमृतमपि विषं भवति । 'त्रणमपि सत्थं तणमपि शस्त्रं भवति । 'णोआ वि होंति अरी' बन्धवोऽपि शत्रवो भवन्ति ॥१७२४।। ज्ञानावरणस्य तु क्षयोपशमे किं स्यादित्याह मुक्खस्स वि होदि मदी कम्मोवसमे य दीसदि उवाओ। णीया अरी वि सत्थं वि तणं अमयं च होदि विसं ॥१७२५।। 'मुक्खस्स वि होदि मदी' मूर्खस्यापि भवति मतिः । 'कम्मोवसमे य दोसदि उवाओ' कर्मोपशमे ज्ञानावरणस्य तु क्षयोपशमे सति उपायो दृश्यते सुभगत्वपुण्यकर्मोदयात । 'णीया अरी वि' शत्रवोऽपि बन्धवो भवन्ति 'सत्थं पि तणं' शस्त्रमपि तणं भवति, 'अमदं होदि विसं' विषमप्यमृतं भवति सवेद्योदये ॥१७२५॥ पाओदएण अत्थो हत्थं पत्तो वि णस्सदि णरस्स । दूरादो वि सपुण्णस्स एदि अत्थो अयत्तेण ।।१७२६॥ 'पावोदयेण' लाभान्तरायस्य कर्मण उदयेन, 'अत्थो हत्थं पत्तो वि णस्सवि परस्स' हस्तप्राप्तोऽप्यर्थो नश्यति पुंसः । 'दूरादो वि' दूरतोऽपि । 'सपुण्णस्स' पुण्यवतः । 'एदि अत्यो' आयान्त्यर्थाः । 'अयत्तेण' अयत्नेन ।।१७२६।। है । इस प्राणीका अज्ञानभाव महान् गुफाके भीतर भयंकर अन्धकारमें प्रवेश करनेसे, सदा अगाध जलमें डूबे रहनेसे और चिरकाल तक जेलखाने में पड़े रहनेसे भी अधिक कष्टदायी है । अन्धकारमें प्रवेश जलमें डूबना और जेलखाने में पड़े रहना तो एक ही भवमें दुःखदायो है किन्तु अज्ञानजन्य दुःख अनन्त भवोंमें दुःखदायी है । श्रुतज्ञान तीसरा विशाल नेत्र है। किन्तु बुद्धिसे रहित प्राणी उसे ग्रहण नहीं कर सकता। उस श्रुतज्ञानके होनेपर अन्धा मनुष्य भी मोक्षरूपी महानगरके कल्याणकारी मार्ग पर जाता है। ज्ञानावरण कर्म इस प्रकारकी अज्ञताको लाता है उसको निवारण करने में समर्थ कोई शरण नहीं है । उसके निवारण का कोई उपाय नहीं है । असातावेदनीय कर्मके उदयसे अमृत भो विष हो जाता है। तृण भी शस्त्र हो जाता है और बन्धु-बान्धव भी शत्रु हो जाते हैं ।।१७२४।। गा०-टी०-ज्ञानावरणका क्षयोपशम होनेपर क्या होता है, यह कहते हैं-ज्ञानावरणका क्षयोपशम होनेपर मूर्खको भी बुद्धि प्राप्त होती है। पुण्यकर्मका उदय होनेसे कर्मोके उपशमका उपाय दृष्टिगोचर होता है तथा सातावेदनोयके उदयमें शत्रु भी बन्धु हो जाते हैं, शस्त्र भी तृण हो जाता है और विष भी अमृत हो जाता है ।।१७२५।। गा०—पाप अर्थात् लाभान्तराय कमके उदयसे मनुष्यके हाथमें आया भी पदार्थ नष्ट हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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