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________________ विजयोदया टीका ८०९ 'णवरि हु धम्मो मेज्झो' धर्मः पुनः शुचिः । कस्मात् खुशब्दो यस्मादित्यर्थे वर्तते । 'धम्मत्थस्स वि णमंति देवा वि' यस्माद्धर्म रत्नत्रयात्मके स्थितस्य देवा अपि नमस्कारं कुर्वन्ति । धर्मेण शुचिना योगादात्मापि शुचिरिति । 'धर्मेण चेव जादि खु साधू धर्मेणव प्राप्नुवन्ति साधवः । किं ? 'जल्लोसधादीया' जल्लोषध्यादिकमृदयतिशम् ॥१८१४।। अशुभत्तं । आस्रवानुप्रेक्षा निरूप्यते जम्मसमुद्दे बहुदोसवीचिए दुक्खजलयराइण्णे । जीवस्स दु परिब्भमणम्मि कारणं आसवो होदि ॥१८१५॥ 'जम्मसमुद्दे' जन्मसमुद्रे । 'बहुदोसवोचिए' विचित्रदोषतरङ्गे । 'दुक्खजलयराकिणे' दुःखजलचरैराकीर्णे। 'जीवस्स परिब्भमणम्मि' जीवस्य परिभ्रमणे यत् कारणं तत् 'आसवो' आस्रवो भवति । ननु च कर्माणि कारणानि नत्वासवः । अत्रोच्यते । कर्मणां परिभ्रमणकारणानां कारणत्वादास्रवः कारणमित्युक्तं ॥१८१५॥ मंसारसागरे से कम्मजलमसंवडस्स आसवदि । आसवणीए णावाए जह सलिलं उदधिमज्झम्मि ।।१८१६॥ 'संसारसागरे' संसारसमुद्रे । 'से' तस्य । 'असंवुडस्स' संवररहितस्य सम्यक्त्वसंयमक्षमामार्दवाजवसंतोषपरिणामरहितस्य । 'कम्मजलमासवदि' ज्ञानावरणादिकर्मजलमास्रवत्यागच्छति । 'आसवणीए णावाए' आस्रवणशीलायां नावि यथा सलिलं प्रविशति । 'उदधिमज्झे' समुद्रमध्ये ॥१८१६।। धूली णेहुत्तुप्पिदगत्ते लग्गा मलो जहा होदि । मिच्छत्तादिसिणेहोल्लिदस्स कम्मं तहा होदि ॥१७१७।। हैं। पवित्र धके सम्बन्धसे आत्मा भी पवित्र है। धर्मसे ही साधु भी जल्लौषधी आदि ऋद्धियोंको प्राप्त करते हैं। अर्थात् रत्नत्रयरूप धर्मका साधन करनेसे साधुओंके शरीरका मल भी औषधीरूप हो जाता है ।।१८१४॥ आगे आस्रवानुप्रेक्षाको कहते हैं गा०-टी०-यह जन्ममरणरूपी समुद्र विविध दोषरूपी लहरोंसे युक्त है तथा दुःखरूपी जलचर जीवोंसे भरा है। इस समुद्र में परिभ्रमणका कारण आस्रव है। शंका-संसार समुद्रमें परिम्रमणका कारण तो कर्म हैं, आस्रव नहीं है। समाधान-परिभ्रमणका कारण कर्म हैं यह ठीक है। किन्तु उन कर्मों का कारण आस्रव है । अतः आस्रवको परिभ्रमणका कारण कहा है ॥१८१५॥ गा०-जैसे समुद्रके मध्यमें छेदयुक्त नावमें जल प्रवेश करता है वैसे ही संसाररूपी समुद्र में जो जीव संवरसे रहित है अर्थात् सम्यक्त्व, संयम, क्षमा, मार्दव, आर्जव, सन्तोष आदि रूप परिणामोंसे रहित है उसके ज्ञानावरण आदि कर्मरूप जलका आस्रव होता है ॥१८१६।। गा०---जैसे तेलसे लिप्त शरीरमें लगी हुई धूल मलरूप हो जाती है वैसे ही जो आत्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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