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________________ ३०० भगवती आराधना 'अप्पपसंसं परिहरह आत्मप्रशंसा त्यजत सदा । 'मा होह' मा भवत । 'जसविणासयरा' यशसा विनाशकाः । सद्भिर्गुणैः प्रख्यातमपि यशो भवतां नश्यति आत्मप्रशंसया । 'अप्पाणं थोवंतो' आत्मानं स्तुवन् । 'तणलहुओ होदि हु जणम्मि' तृणवल्लघुर्भवति सुजनमध्ये ॥३६१।। संता वि गुणा कत्थंतयस्स णस्संति कजिए व सुरा । सो चेव हवदि दोसा जं सो थोएदि अप्पाणं ।।३६२।। संता वि विद्यमाना अपि 'कथंतयस्स' ममैते गुणा इति कथयतः । 'गुणा णस्संति' गुणा नश्यन्ति । कजिएव सुरा सौवीरेण सुरेव । 'सो चेव हवइ दोसो' स एव भवति दोषः । 'जं सो थोएदि अप्पाणं' यदात्मानं स्तौति सः ॥३६२॥ स्वगुणस्तवनाकरणे यदि ते नश्यन्ति तर्हि स्तोतव्याः स्युर्न तथा नश्यन्ति इत्याचष्टे संतो हि गुणा अकहिंतयस्स पुरिसस्स ण वि य णस्संति । अकहिंतस्स वि' जह गहवइणो जगविस्सुदो तेजो ।।३६३।। संता विद्यमाना अपि । 'अहितयस्स' अभाषमाणस्य । 'पुरिसस्स' पुरुषस्य । 'गुणा ण विय अस्संति' व नश्यन्ति । यदि न स्वयं स्तौति स्वगुणान्न प्रख्यातिमुपयान्तीत्येतच्च नेति वदति । 'अहितस्स . वि' अस्तुवतोऽपि 'गहवइणो' ग्रहपतेः आदित्यस्य ' जगविस्सुदो तेजो' जगति विश्रुतं तेजः ॥३६३॥ आत्मन्यसतां गुणानां उत्पादकं स्तवनमिति च न युज्यत इत्याह गा०-अपनी प्रशंसा करना सदाके लिए छोड़ दो। अपने यशको नष्ट मत करो क्योंकि समीचीन गुणोंके कारण फैला हुआ भी आपका यश अपनी प्रशंसा करनेसे नष्ट होता है। जो अपनी प्रशंशा करता है वह सज्जनोंके मध्यमें तृणकी तरह लघु होता है ॥३६१॥ - गा.--'मेरेमें ये ये गुण हैं' ऐसा कहने वालेमें विद्यमान भी गुण उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जैसे काँजीके पीनेसे मदिराका नशा नष्ट हो जाता है। वह जो अपनी प्रशंसा करता है यही उसका दोष है ॥३६२।। आगे कहते हैं कि अपने गुणोंकी प्रशंसा न करनेसे यदि वे गुण नष्ट होते हों तो उनकी प्रशंसा करना उचित है किन्तु वे नष्ट नहीं होते गा-जो पुरुष अपने गुणोंकी प्रशंसा स्वयं नहीं करता उसके विद्यमान गुण नष्ट नहीं होते । यदि वह अपने गुणोंकी प्रशंसा नहीं करता तो उसके गुणोंकी प्रख्याति नहीं होती, ऐसी बात नहीं है। सूर्य अपने गुणोंको स्वयं नहीं कहता। फिर भी उसका प्रताप जगत्में प्रसिद्ध है ॥३६३।। आगे कहते हैं कि अपनी प्रशंसा करनेसे अपनेमें अविद्यमान भी गुण प्रकंट होते हैं ऐसा कहना युक्त नहीं है १. वि गहवइणो णो जगविस्सदो-आ० । २. त्यस्य णो जग विस्सुदो तेजो न जगति विश्रुतं तेजःआ० मु० । ३. ति वचनं-आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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