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________________ विजयोदया टीका २९९ पत्थं हिदयाणिठें पि भण्णमाणस्स सगणवासिस्स । कडुगं व ओसहं तं महुरविवायं हवइ तस्स ।।३५९|| 'पत्थं हिदयाणिठं पि भण्णमाणस्स सगणवासिस्स' पथ्यं हितं हृदयस्य अनिष्टमपि वदत आत्मीयगणे वसतः । 'कडुगं व ओसहं तं महुरविवायं हवइ तस्स' 'कटुकमौषधमिवापि तन्मधुरविपाकं भवति । तस्य परस्य अनिष्टेन कथितेन किमस्माकं स्वं प्रयोजनम। किन्न वेत्ति स्वयं इति नोपेक्षितव्यम् । परोपकारः कार्य एवेति कथयति । तथाहि-तीर्थकृतः विनेयजनसंबोधनार्थ एव तीर्थविहारं कुर्वन्ति । महत्ता नामैवं यतपरोपकाराबद्धपरिकरता । तथा चोक्तं क्षुद्राः संति सहस्रशः स्वभरणव्यापारमात्रोद्यताः । स्वार्थो यस्य परार्थ एव स पुमानेकः सतामग्रणी ॥ दुष्पूरोदरपूरणाय पिबति स्रोतःपति वाडवो। जीमूतस्तु निदाघसंभृतजगत्संतापविच्छित्तये ॥ [ ] ॥३५९।। इतरेणापि श्रवणयोरनिष्टमपि तद्ग्राह्यं इति कथयति पत्थं हिदयाणिटुं पि भण्णमाणं णरेण घेत्तव्वं । पेल्लेदूण वि छूटं बालस्स घदं व तं खु हिदं ॥३६०॥ हृदयस्यानिष्टमपि पथ्यं नरेण बुद्धिमता ग्राह्यं हितं इति चेतो निधाय । 'पेल्लेदूण वि छूढं' अवष्टभ्यापि प्रवेशितं तं बालानां हितं भवति यथा तद्वदिति यावत् ॥३६०॥ अप्पपसंसं परिहरह सदा मा होह जसविणासयरा । अप्पाणं थोवंतो तणलहुहो होदि हु जणम्मि ।।३६१॥ गा०-टो०-अपने गणके वासी साधुको हितकारी किन्तु हृदयको अनिष्ट भी लगनेवाले वचन बोलना चाहिए, क्योंकि वे वचन कडुवी औषधीकी तरह उसके लिए मधुर फलदायक होते हैं। दूसरेको अनिष्ट वचन बोलनेसे हमारा अपना क्या प्रयोजन है, क्या वह स्वयं नहीं जानता । ऐसा मान उसकी उपेक्षा नहीं करना चाहिए। परोपकार करना ही चाहिए। जैसे तीर्थंकर शिष्यजनोंके सम्बोधन के लिए ही विहार करते हैं। महत्ता नाम इसीका है कि परोपकार करने में तत्पर रहना । कहा भी है 'अपने ही मरण-पोषणमें लगे रहनेवाले क्षुद्रजन तो हजारों हैं किन्तु परोपकार ही जिसका स्वार्थ है ऐसा पुरुष सज्जनोंमें अग्रणी विरल ही होता है। बड़वानल अपना कभी न भरनेवाला पेट भरनेके लिए समुद्रका जल पीता है। किन्तु मेघ ग्रीष्मसे संतप्त जगत्के सन्तापको दूर करनेके लिए समुद्रका जल पीता है ॥३५९|| आगे कहते हैं कि कानोंको अप्रिय भी गुरुका वचन ग्रहण करना चाहिए गा०-हृदयको अनिष्ट भी वचन गुरुके द्वारा कहे जाने पर मनुष्यको पथ्य रूपसे ग्रहण करना चाहिए। जैसे बच्चेको जबरदस्ती मुँह खोलकर पिलाया गया घी हितकारी होता है उसी तरह वह वचन भी हितकारी होता है ॥३६०।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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