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________________ २९८ भगवती आराधना बहव इत्येतावता चारित्रक्षुद्रा न भवद्भिः समाश्रयणीयाः एक इति वा न सुगुणः परिहार्य इत्येतदाचष्टे वासत्थसदसहस्सादो वि सुसीलो वरं खु एक्को वि । जं संसिदस्स सीलं दंसणणाणचरणाणि वड्ढेति ॥३५६।। 'पासत्थसदसहस्सादो वि' पार्श्वस्थग्रहणं चारित्रक्षुद्रोपलक्षणार्थ । चारित्रक्षुद्राच्छतसहस्रादपि एकोऽपि सुशीलो वरम् । यः संयममाश्रितस्य शीलं, दर्शनं, ज्ञानं, चारित्रं च वर्द्धते, स भवदिभराश्रयणीय इति भावार्थः ॥३५६॥ संजदजणावमाणं पि वरं खु दुज्जणकदादु पूजादो । सीलविणासं दुज्जणसंसग्गी कुणदि ण दु इदरं ।।३५७।। संयताः परिभवन्ति माम सुचरितं ततः पावस्थादीनेवाश्रयामि इति न चतः कार्यमित्याचष्टे'संजदजणावमाणं पि वरं' संयतजनापमानमपि वरं। 'दुज्जणकदादु पूजादो' दुर्जन तायाः पूजायाः । कथं ? 'दुज्जणसंसग्गी सीलविणासं कुणदि' दुर्जनसंसर्गः शीलविनाशं करोति । 'न दु इदरं' न तु इतरं । संयतजनावमानं तु नैव शीलविनाशं करोति ॥३५७।। प्रस्तुतोपसंहारगाथा आसयवसेण एवं पुरिसा दोसं गुणं व पावंति । तम्हा पसत्थगुणमेव आसयं अल्लिएज्जाह ॥३५८॥ 'आसयवसेण' आश्रयवशेन । एवमुक्तेन क्रमेण । 'पुरिसा दोसं गुणं व पावंति' पुरुपा दोषं गुणं वा प्राप्नुवन्ति। ''तम्हा पसत्थगुणमेव आसयं अल्लिएज्जाह' तस्मात् प्रशस्तगुणमेव आश्रयं आश्रयेत् ॥३५८॥ __ चारित्रमें क्षुद्र यति बहुत भी हों तो आपको उनका संग नहीं करना चाहिए। और गुणशाली एक हो तो उसको उपेक्षा नहीं करना चाहिए यह कहते हैं गा०-पार्श्वस्थ अर्थात् चारित्रमें क्षुद्र यति लाख भी हों तो उनसे एक भी सुशील यतिश्रेष्ठ है जो अपने संगीके शील, दर्शन, ज्ञान और चारित्रको बढ़ाता है । आपको उसीका आश्रय लेना चाहिए। गाथामें आगत 'पार्श्वस्य' शब्द जो चारित्रमें क्षुद्र हैं उन सबके उपलक्षणके लिए है ॥३५६।। गा०-संयमीजन मुझ चारित्रहीनका तिरस्कार करते हैं अतः मैं पार्श्वस्थ आदि चारित्रहीन मुनियोंके ही पास रहूँ। ऐसा मनमें विचार नहीं करना चाहिए; क्योंकि दुर्जनके द्वारा की गई पूजासे संयमीजनोंके द्वारा किया गया अपमान श्रेष्ठ है। इसका कारण यह है कि दुर्जनका संसर्ग शोलका नाशक है किन्तु संयमीजनों द्वारा किया गया अपमान शीलका नाशक नहीं है ॥३५७॥ प्रस्तुत चर्चाका उपसंहार करते हैं गा०-उक्त प्रकारसे अच्छे बुरे आश्रयके कारण पुरुष दोष और गुणको प्राप्त करते हैं। इसलिए प्रशस्त गुणयुक्त आश्रयका ही आश्रय लेना चाहिए ॥३५८|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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