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________________ ३९० भगवती आराधना एवं जाणतेण वि पायच्छित्तविधिमप्पणो सव्वं । कादव्वादपरविसोधणाए परसक्खिगा सोधी ।।५३१।। ‘एवं जाणंतेण वि' बिजानतापि । किं ? 'पायच्छित्तविधि' प्रायश्चित्तक्रमं । 'अप्पणो' आत्मनः । 'सव्वं' सर्व। 'काववा' कर्तव्या। 'परसक्खिग्गा सोधी' शुद्धिः । 'आदपरविसोषणाए' आत्मनः परा उत्कृष्टा विशोधना यथा स्यादित्येवमथं स्वसाक्षिका परसाक्षिका च विशुद्धिरुत्कृष्टेति मन्यते । प्राय इत्युच्यते लोकश्चित्तं तस्य मनो भवेत् । 'तचित्तग्राहकं कर्म प्रायश्चित्तमिति स्मृतं ॥[ ] इति वचनात् । शुद्धिरतिचाराणां अनेन कृतेति परे मानयन्ति । निरतिचाररत्नत्रयोऽयमिति परे भव्या एतदुपदेशेनास्माभिः प्रवतितव्यमिति ढोकन्ते । अन्यथा तद्गुणातिशयानवगमनान्न तदनुयायिनो भवन्ति । ततः कथमनेन परानुग्रहः कृतः स्यात् । कर्तव्यः स्वपरानुग्रहः । तथा चोक्तं-अप्पहिवं कादव्वं जइ सक्क परहिदं च कायग्वं ॥ इति । तथापि अंयोथिना हि जिनाशासनवत्सलेन कर्तव्य एव नियमेन हितोपदेश:-[वरांग० २१३ ] । इति । वैद्य इव । अथवा आत्मनः परस्परविशोधनार्थ परसाक्षिकं । मम शुद्धि दृष्ट्वा परोऽप्ययमेव क्रम इति परसाक्षिकायां शुद्धी प्रयतते । अन्यथा सर्वे स्वसाक्षिकामेव कुर्युः। तथा च न शुद्धयन्ति । गतानुगतिको हि प्रायेण लोकः ॥५३१॥ यस्मात्परसाक्षिका शुद्धिः प्रधाना तम्हा पन्चज्जादी दंसणणाणचरणादिचारो जो। तं सव्वं आलोचेहि णिरवसेसं पणिहिदप्पा ।।५३२।। गा-इसी प्रकार सम्पूर्ण प्रायश्चित्त विधिको जानते हुए भी मुनिको अपनी उत्कृष्ट विशुद्धिके लिए परकी साक्षीपूर्वक शुद्धि करना चाहिए। क्योंकि अपनी और दूसरेकी साक्षीपूर्वक विशुद्धि उत्कृष्ट मानी जाती है। कहा है-'प्रायश्चित्त' शब्दमें प्रायका अर्थ लोक है और उसका मन चित्त उस चित्तका ग्राहक अथवा उस चित्तको शुद्ध करनेवाले कर्मको प्रायश्चित्त कहा है ॥५३१॥ टो०-प्रायश्चित्त करनेसे दूसरे मानते हैं कि इसने अतिचारोंकी शुद्धि कर ली। इसका य निरतिचार है। अन्य भव्यजीव उसके पास इस विचारसे आते हैं कि हमें भी इनके उपदेशानुसार प्रवृत्ति करना चाहिए। यदि दोषोंकी विशुद्धि साधु न करे उसके गुणोंके अतिशयको न जाननेसे भव्यजीव उसके अनुयायी नहीं होते। तब साधु कैसे दूसरोंका उपकार कर सकता है। कहा भी है कि 'अपना हित करना चाहिए। अपना हित करते हुए शक्य हो तो परका हित करना चाहिए।' तथा और भी कहा है-'कल्याणके इच्छुक जिनशासनके प्रेमीको नियमसे हितका उपदेश करना चाहिए । जैसे वैद्य दूसरोंका हित करता है। अथवा अपनी और परकी शुद्धिके लिए परकी साक्षीपूर्वक शुद्धि करना चाहिए। मेरी शुद्धिको देखकर दूसरे भी ऐसा ही करेंगे, इसलिए साधु परकी साक्षीपूर्वक शुद्धि करता है। ऐसा न करनेसे सब केवल अपनी ही साक्षीपूर्वक शुद्धि करने लगेंगे। और ऐसा करनेपर वे शुद्ध नहीं हो सकेंगे। लोग तो प्रायः देखा-देखी करनेवाले होते हैं ॥५३१।। १. चित्तशुद्धिकरं कर्म आ० मु० । २. परस्य वि-मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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