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________________ ८४० भगवती आराधना अयोगात्मपरिणामः केवलज्ञानं चतुर्थशुक्लं, तृतीयं तु सूक्ष्मकाययोगात्मपरिणामः केवलमिति भेदस्तृतीयचतुर्थयोः ।।१८८३॥ इय सो खवओ ज्झाणं एयग्गमणो समस्सिदो सम्म । विउलाए णिज्जराए वट्टदि गुणसेढिमारूढो ॥१८८४।। 'इय सो खवगो' एवमसौ क्षपकः, एकाग्रचित्तः सम्यग्ध्यानं समाश्रित्य विपुलायां कर्मनिर्जरायां वर्तते. 'गुणसेढिमारूडो' गुणश्रेणीमारूढः उपशान्तकषायादिकां ॥१८८४॥ . ध्यानमहात्म्यस्तवनार्थ उत्तरप्रबन्धः सुचिरं वि संकिलिटुं विहरंतं झाणसंवरविहूणं । ज्झाणेण संवुडप्पा जिणदि अंतोमुहुत्तेण ।।१८८५।। 'सुचिरमवि संकिलिठं विहरत' पूर्वकोटिकालं देशोनं क्लेशसहितचारित्रोद्यतं 'ज्झाणसंवरविहूणं' ध्यानाख्येन संवरेण विहीनं । 'जिणदि' जयति । कः ? ''आहोरत्तमेत्तेण झाणेण संबुडप्पा' अहोरात्रमात्रेण ध्यानेन संवृतात्मा ॥१८८५।।। एवं कसायजद्धमि हवदि खवयस्स आउधं झाणं । ज्झाणविहूणो खवओ रगेव अणाउहो मल्लो ॥१८८६।। का नाश करता हुआ अन्तिम शुक्ल ध्यानको ध्याता है। सूक्ष्मकाय योग रूप आत्म परिणाम वाला सयोगकेवली तीसरे शुक्ल ध्यानको ध्याता है और अयोगरूप आत्मपरिणाम वाला अयोगकेवली चतुर्थ शुक्ल ध्यानको ध्याता है। यह तीसरे और चतुर्थ शुक्ल ध्यान में भेद है ॥१८८३।। विशेषार्थ-महापुराणमें कहा है-तीसरेके पश्चात् योगका निरोध करके आस्रव से रहित अयोगकेवली समुच्छिन्न क्रिय अनिवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्ल ध्यानको ध्याता है। एक अन्तर्मुहूर्त काल तक अतिनिर्मल उस ध्यानको करके शेष चार अघातिकर्मोंका विनाशकर मोक्षको प्राप्त होता है। अयोगकेवलीके उपान्त्य समय में बासठ और अन्तिम समय में तेरह प्रकृतियाँ नष्ट हो जाती हैं। उसके पश्चात् वह शुद्धात्मा ऊर्ध्वगमन स्वभावके कारण एक ही समयमें लोकके अन्त पर्यन्त जाकर सिद्धालयमें विराजमान हो जाता है ।।१८८३॥ गा०-इस प्रकार वह क्षपक एकानमन से सम्यक् ध्यान को ध्याकर उपशान्त कषाय आदि गुण स्थानों की श्रेणि पर आरूढ़ होकर विपुल कर्म निर्जरा करता है ॥१८८४॥ आगे ध्यानके माहात्म्यको कहते हैं गा०-एक अन्तमुहूर्त मात्र या एक दिन रात मात्र ध्यान रूप संवरसे युक्त मुनि, कुछ कम एक पूर्व कोटि काल तक ध्यानरूप संवरसे रहित तथा संक्लेशसहित चारित्र का पालन करने वाले साधुसे श्रेष्ठ है ॥१८८५॥ १. समण्णिदो-अ० । २. अहोरत्तमित्तेण अन्तोमुहूर्तेन कर्म जयति । अहोरात्रमात्रेण झाणेण संपडप्पा ध्यानेन संवृतात्मा कर्मकाण्डकोऽपि न जयति -आ० । ३. रणगोवा -आ० । जुद्धेव णिरावुधो होदि -मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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