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________________ विजयोदया टीका ८४१ ‘एवं कसायजुद्धंहि' कषायसंप्रहारे ध्यानमायुधं क्षपकस्य भवति । ध्यानहीनः क्षपकः युद्धे निरायुध इव न प्रतिपक्षं प्रहन्तुमलं । कषायविनाशकारित्वं ध्यानस्यानया कथितं ।।१८८६।। रणभूमीए कवचं व कसायरणे तयं हवे कवचं । जुद्धे व णिरावरणो झाणेण विणा हवे खवओ ।।१८८७।। 'रणभूमीए' युद्धभूमौ कवचवत्कषाययुद्धे ध्यानं कवचो भवति । एतेन कषायपीडारक्षां करोति ध्यानमित्याख्यातं । ध्यानाभावे दोषमाचष्टे । 'जुद्ध व णिरावरणों' युद्ध निरावरण इव भवति ध्यानेन विना क्षपकः ॥१८८७॥ ज्झाणं करेइ खवयस्सोवट्ठभं खु हीणचेट्ठस्स । थेरस्स जहा जंतस्स कुणदि जट्ठी उवटुंभं ॥१८८८।। 'झाणं करेदि' ध्यानं करोति क्षपकस्योपष्टम्भं हीनचेष्टस्य स्थविरस्य गच्छतो यथा करोति यष्टिरुपष्टम्भं ॥१८८८॥ मल्लस्स णेहपाणं व कुणइं खवयस्स दढबलं झाणं । झाणविहीणों खवओ रंगे व अपोसिओ मल्लो ।।१८८९।। 'मल्लस्स हपाणं व' मल्लस्य स्नेहपानमिव क्षपकस्य ध्यानं करोति। ध्यानहीनः क्षपको रङ्गे अपोषितो मल्ल इव न प्रतिपक्ष जयति ।।१८८९॥ वइरं रदणेसु जहा गोसीसं चंदणं व गन्धेसु । वेरुलियं व मणीणं तह ज्झाणं होइ खवयस्स ।।१८९०॥ गा०-टी०-इस प्रकार कषायोंके साथ युद्ध करने में अर्थात् कषायोंका संहार करने में ध्यान क्षपकके लिये आयुध होता है। अर्थात् ध्यानके द्वारा कषायोंका विनाश किया जाता है । जैसे विना अस्त्रके युद्ध में शत्रुका घात करना संभव नहीं है, उसी प्रकार ध्यान हीन क्षपक कषायों को नहीं जीत सकता। इससे ध्यानको कषायोंका विनाश करने वाला कहा है ।।१८८६|| गा०-टी०-जैसे युद्ध भूमिमें कवच होता है वैसे ही कषायोंसे युद्ध करनेमें ध्यान कवचके समान है। इससे कहा है कि ध्यान कषायसे रक्षा करता है। ध्यानके अभावमें दोष कहते हैं। जैसे युद्ध में कवचके विना योद्धा होता है वैसे ही ध्यान के विना क्षपक होता है। अर्थात् युद्धमें बिना कवचके योद्धाकी जो स्थिति है वही स्थिति ध्यानके विना क्षपक की होती है। वह भी उसी की तरह मारा जाता हैं ॥१८८७|| गा०-जैसे चलने में असमर्थ वृद्ध पुरुषको गमन करते समय लाठी सहायक होती है वैसे ही असमर्थ क्षपकका सहायक ध्यान होता है ।।१८८८॥ गा०-जैसे दुग्धपान मल्ल पुरुषके बलको दृढ़ करता हैं वैसे ही ध्यान क्षपककी शक्ति को दृढ़ करता है। जैसे अपुष्ट मल्ल अखाड़ेमें हार जाता है वैसे ही ध्यानसे रहित क्षपक कषायोंसे हार जाता है ।।१८८९।। १. कवचं होदि झाणं कसायजुद्धम्मि -मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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