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________________ विजयोदया टीका ३४१ दीर्णानां क्षुधादीनां विनाशने समर्थ । 'जाणदि पडिगारं' जानाति प्रतिकारं । 'वादपित्तसिंभाणं' वातपित्त- . श्लेष्मणां । 'गीदत्थो' गृहीतार्थः ॥४४६॥ अहव सुदिपाणयं से तहेव अणुसिट्ठिभोयणं देइ । तण्हाछुहाकिलिंतो वि होदि ज्झाणे अवक्खित्तो ।।४४७॥ 'अहव सुदिपाणय' अथवा श्रुतिपानं । ‘से देवि' तस्मै ददाति । 'अणुसिटिभोयणं देदि' अनुशासनभोजनं वा। तेन पानेन भोजनेन च । 'तण्हाछुहाकिलिंतो वि' क्षुधा तृषा वा बाध्यमानोऽपि । 'झाणे अवक्खित्तो होवि' ध्याने अव्याक्षिप्तचित्तो भवति ॥४४७।। दोषान्तरमप्याचष्टे-अगृहीतार्थसकाशे वसतः क्षपकस्य संसारसागरम्मि य गते बहुतिव्वदुक्खसलिलम्मि । संसरमाणो जीवो दुक्खेण लहइ मणुस्सत्तं ।। ४४८ ॥ 'संसारसागरम्मि य' संसारः सागर इव तस्मिन्संसारसागरे द्रव्यक्षेत्रकालभवभावेषु परिवर्तमानः संसारसागरः । तत्र द्रव्यसंसारो नाम शरीरद्रव्यस्य ग्रहणमोक्षणाभ्यावृत्तिरसकृत् । तद्यथा-प्रथमायां पृथिव्यां सप्तधनूंषि त्रयो हस्ता षडङ्गलाधिकाः प्रमाणं नारकाणां शरीरस्य । अधोऽधस्तद्विगुणोच्छ्रयता यावत्पञ्चधनु:शतानि । एवंविकल्पेषु शरीरेषु एकैकं शरीरमनन्तवारं गृहीतमतीते काले भव्यानां तु भाविनि काले भाज्यमनन्तवारग्रहणं । अभव्यानां तु भविष्यति कालेऽप्यनन्तानि तथाविधानि शरीराणि । एष द्रव्यसंसारः स्थूलतः। नष्ट करने में समर्थ प्रासुकद्रव्योंको देना जानते हैं। तथा बात पित्त कफका प्रकोप होनेपर उनका प्रतिकार करना भी जानते हैं ॥४४६।। गा०-अथवा वह आचार्य क्षपकको शास्त्रोपदेशरूपी पेय और अनुशासनरूप भोजन देते हैं। उस पान और भोजनसे भूख और प्याससे पीड़ित भी क्षपक ध्यानमें एकाग्रचित्त होता है ।।४४७॥ अल्पज्ञानी आचार्यके पास रहने वाले क्षपकके अन्य दोष भी कहते हैं गा०-बहत तीव्र दुःख रूपी जलसे भरे अनन्त संसार रूपी सागरमें संसरण करता हआ जीव बड़े कष्टसे मनुष्य भव प्राप्त करता है ॥४४८॥ टी०-संसारके पाँच प्रकार हैं-द्रव्य संसार, क्षेत्र संसार, काल संसार, भव संसार और भाव संसार । शरीर द्रव्यका वार-बार ग्रहण और त्याग द्रव्य संसार है । प्रथम नरकमें नारकियोंके शरीरका प्रमाण सात धनुष, तीन हाथ छह अंगुल है। नीचे-नीचेके नरकोंमें उसकी दुगुनी ऊँचाई होते होते अन्तमें पाँच सौ धनुष ऊँचाई है। इस प्रकारके भेद वाले शरीरोंमें जीवोंने अतीत कालमें एक-एक शरीर अनन्त बार ग्रहण किया । भविष्य कालमें भव्य जीवोंका अनन्तबार ग्रहण करना भाज्य है अर्थात् जो मुक्त हो जायेंगे वे अनन्त बार ग्रहण नहीं कर सकेंगे, शेष कर सकेंगे। किन्तु अभव्य जीव तो भविष्य कालमें भी उन शरीरोंको अनन्त बार ग्रहण करेंगे। यह द्रव्य संसारका कथन स्थूलरूपसे है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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