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________________ ३४० भगवती आराधना . 'गीदत्थो पुण' गृहीतार्थः पुनः । 'खवगस्स' क्षपकस्य । 'कुणदि' करोति । 'विधिणा' क्रमेण । 'समाधिकरणाणि' समाधानक्रियाः । 'कण्णाहुदीहिं' कर्णाहुतिभिः । 'उवगहिदो' उपगृहीतः । 'पज्जलदि' प्रज्वलति । 'ज्झाणग्गी' ध्यानाग्निः ॥४४३।। खवयस्सिच्छासंपादणेण देहपडिकम्मकरणेण । अण्णेहिं वा उवाएहिं सो हु समाहिं कुणइ तस्स ॥४४४।। 'खवयस्सिच्छासंपादणेण समाधि कुणदि' क्षपकस्येच्छासम्पादनेन समाधिं करोति । यदिच्छत्यसो तद्दत्वा 'समाधि' रत्नत्रये समवधानं तस्य करोति इति यावत् । 'देहपडिकम्मकरणेण' शरीरवाधाप्रतिकारक्रियया । 'अण्णेहि वा उवाएहि 'अन्यैर्वा सामवचनोपकरणदानचिरंतनक्षपकोपाख्यानादिभिरुपायैः समाधि करोति ॥४४४॥ णिज्जूढं पि य पासिय मा भीही देइ होइ आसासो । संधेइ समाधि पि य वारेइ असंवुडगिरं च ॥४४५॥ 'णिज्जूढं पि य पासिय' निर्यापर्यतिभिः परित्यक्तं दृष्ट्वा किं भवता परीषहासहनेन चलचित्तेनास्माकं ? त्यक्तोऽस्यस्माभिरिति । 'मा भीहि देइ' मा भैषीरित्यभयं ददाति । 'होदि' भवति । 'च आसासो' आश्वासः । 'संधेइ' संधत्ते 'समाधिं पि य' रत्नत्रयैकाग्यमविच्छिन्नं । 'वारेदि असंवुडगिरं च' वारयत्यसंवृतानां वचनं नैवं वक्तव्यो भवद्भिरयं महात्मा। को हि नामायमिव शरीरं आहारं दुस्त्यजं त्यक्तुं क्षम इति प्रोत्साहयन् ॥४४५॥ जाणदि फासुयदव्यं -उवकप्पेद तहा उदिण्णाणं । जाणइ पडिकारं वादपित्तसिंभाण गीदत्थो ।।४४६।। 'जाणवि य' जानाति च । 'फासुयदव्वं' योग्यं द्रव्यं । 'उवकप्पेदु' विधातुं । 'तहा उदिण्णाणं' तथो गा०-किन्तु गृहीतार्थ आचार्य विधिपूर्वक क्षपकका समाधान करनेकी क्रिया करता है। उसके कानोंमें धर्मोपदेशकी आहुति देता है उससे उपगृहीत होकर ध्यानरूपी अग्नि भड़क उठती है ।।४४३।। गा०-वह क्षपककी इच्छा पूर्ति करके-जो वह चाहता है वह देकर--समाधि करता है अर्थात् रत्नत्रयमें उसका मन स्थिर करता है । तथा शारीरिक बाधाका प्रतिकार करके और अन्य उपायोंसे जैसे शान्तिदायक वचन, उपकरणदान और प्राचीन क्षपकोंके दृष्टान्त आदिसे समाधि करता है।४४४॥. गा०–निर्यापक अर्थात् सेवा करनेवाले यतियोंने जिस क्षपकको यह कहकर 'कि आप परीषह सहन नहीं करते और आपका चित्त चंचल है हमें आपसे अब कुछ भी प्रयोजन नहीं है, छोड़ दिया है, उसको भी देखकर बहुश्रुत आचार्य 'मत डरो' इस प्रकार अभय देते हैं। आश्वासन देते हैं, और रत्नत्रयमें एकाग्रता बनाये रखते हैं । तथा असंयतवचनोंका निवारण करते हैं कि इस महात्माको आपको ऐसा नहीं कहना चाहिए। इनके समान कठिनतासे छोड़नेके योग्य शरीर और आहारको कौन छोड़ने में समर्थ है । इस प्रकार प्रोत्साहन देते हैं ।।४४५।। गा-शास्त्रके अर्थको हृदयंगम करनेवाले आचार्य उदीर्ण हुई भूख प्यासकी वेदनाको १. अन्य उपायैः तस्य समाधि करोति-अ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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