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________________ ६२१ विजयोदया टीका णीचत्तणं व जो उच्चत्तं पेच्छेज्ज भावदो तस्स । णीचत्तणेव उच्चत्तणे वि दुक्खं ण किं होज्ज ॥१२२८॥ एतद्विपरोतार्थोत्तरगाथा। स्पष्टतया' वस्तुस्थिति नापेक्षते । सङ्कल्पायत्ता प्रीतिरप्रीतिर्वेत्यनुभवसिद्धमेतदखिलस्य जगत इति वदति । यस्मादुच्चगोत्रत्वेऽपि न सुखदुःखयोर्भावाभावी च भवतः संकल्पात् ।।१२२८॥ तम्हा ण उच्चणीचत्तणाइं पीदिं करेंति दुःक्खं वा। संकप्पो से पीदी करेदि दुक्खं च जीवस्स ॥१२२९।। 'तम्हा' तस्मात् । 'उच्चणीचत्तणाणि' मान्यामान्यकुलत्वानि । 'न करेंति पोदि दुक्खं वा' न कुरुतः प्रीतिं दुःखं वा । 'संकप्पो पोदि करेदि' संकल्पो 'से' अस्य जीवस्य तस्मात् प्रीतिं करोति दुखं वा । सति संकल्पे भावादसति अभावाच्च ॥१२२९॥ मानकषायसाध्योऽयं दोष इति कथयति कुणदि य माणो णीयागोदं पुरिसं भवेसु बहुएसु । पत्ता हु णीचजोणी बहुसो माणेण लच्छिमदी ॥१२३०॥ 'कुणवि य' करोति । 'माणो' अहंकारः । ‘णीयागोदं पुरिसं' नीचर्गोत्रमस्येति नीचर्गोत्रं 'पुरिसं' आत्मानं । 'भवेसु' जन्मसु । 'बहुगेषु' बहषु । 'पत्ता' प्राप्ता । 'णीचजोणी खु' नीचैर्गोत्रमेव । का? 'लन्छिमदी' लक्ष्मीमती । केन निमित्तेन ? 'माणेण' सुरूपा यौवनानु कूला कुलीना चेति गर्वेण ॥१२३०॥ कुलमें भी अनुराग क्यों नहीं होगा ? अवश्य ही होगा ॥१२२७।। आगेकी गाथा में इससे विपरीत कथन करते हैं गा-जो जीव भावसे उच्चपनेको नीचपनेकी तरह देखता है उसको नीचपनेकी तरह उच्चपनामें क्या दुःख नहीं होता? होता ही है । किसीसे प्रीति या अप्रीति तो संकल्पके अधीन है यह बात समस्त जगत्के अनुभवसे सिद्ध है। क्योंकि संकल्पसे उच्च गोत्र होते हुए भी सुखका भाव और दुःखका अभाव नहीं होता ।।१२२८।। गा०-अतः उच्च कुल या नीच कुल सुख या दुःख नहीं देता। किन्तु जीवका संकल्प सुख या दुःख करता है। संकल्पके होने पर सुख दुःख होता है और संकल्पके अभावमें नहीं होता ॥१२२९।। आगे कहते हैं कि मानकषायके कारण यह दोष होता है गा०-मानकषाय अर्थात् अहंकार पुरुषको अनेक जन्मोंमें नीच गोत्री बनाता है। देखो, लक्ष्मीमती, मैं सुन्दर हूँ, कुलीन हूँ यौवनवती हूँ इस गर्वके कारण अनेक बार नीच गोत्रमें उत्पन्न हुई ॥१२३०॥ विशेषार्थ-बृहत्कथा कोशमें १०८ नम्बरमें इसकी कथा दी है ॥१२३०॥ १. स्पष्टाया-अ०! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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