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________________ ६२२ भगवती आराधना पूयावमाणरूवविरुवं सुभगत्तदुन्भगत्तं च । आणाणाणा य तहा बिधिणा तेणेव पडिसेज्ज ॥१२३१॥ 'प्रयावमाणरूवविरुवं' पूजा, अवमानं परिभवः । रूपशब्दः सामान्यवचनोऽपि शोभनाशोभनरूपविषयतया इह विरूपशब्दसन्निधाने प्रयुज्यमानोऽतिशयिते रूपे प्रवर्तते। तेन सौरूप्यं चेत्यर्थः। 'सुभगत्तदुब्भगत्तं च' सौभाग्यं दौर्भाग्यं च सर्वेषां प्रियत्वं द्वेष्यत् चेति यावत् । 'आणाणाणा य तहा' आज्ञा आदेशाप्रतिधातः अनाज्ञा च तथा। विधिना' माननिषेधप्रकारेणव । 'पडिसेज्ज' प्रतिषेध्याः । अभिधेयवशाल्लिगवचनप्रवृत्तिरिति लिंग्यन्तरेण पूजादिशब्दोपनीतेन प्रतिषेध्यशब्दस्याभिसम्बन्धः । परिभवं प्राप्तोऽपि बहशः कदाचित्पूज्यते । एवमपि प्राप्ता ह्यनन्तेषु पूजास्तत्र कोऽनुरोगोऽस्य । दुःखं वा परिभवप्राप्तौ । 'पूज्यमानोऽपि बहुषु पुनः परिभवानवाप्स्यति । न चात्मनः पूजायां काचिद् वृद्धिः परिभवे वा हानिः । सङ्कल्पवशादेवात्मनो जायेते प्रीतिपरितापी न केवलं पूजापरिभवाभ्यामेवेति । उक्तं च यः स्तूयते शुचिगुणैर्मधुरैवंचोभिः स निंद्यते च परुषर्वचनै विचित्रैः । हा चित्रतां कथमयं भवसंकटस्थः प्राप्नोत्यनेकविधिकर्मफलोपभोगं ॥ भूत्वा मनुष्यपतयः पुनरेव दासा होना भवन्ति शुचयोऽशुचयश्च भूयः। कान्त्या' च ये युवतिभिविषमानुरूपा द्वेष्या भवन्त्यसुभगत्वमुपेत्य भूयः ॥ दृष्टः क्वचित्प्रवररत्नविभूषणो यः संदृश्यते विकलपुण्यतया दरिद्रः। भूयश्च मित्रबहुबंधुजनोपगूढः संलक्ष्यते व्यसनभारभूदेक एव ॥ [ ___गा०-टी०-मानकषायका जैसे निषेध किया है वैसे ही पूजा, अपमान, सौरूप्य, वैरूप्य, सौभाग्य, दुर्भाग्य, आज्ञा अनाज्ञाका भी निषेध जानना। गाथामें आगत रूपशब्द यद्यपि सामान्यवाची होनेसे सुन्दर और असुन्दर दोनों ही प्रकारके रूपका वाचक हैं तथापि विरूप शब्दके साथमें प्रयुक्त होनेसे अतिशयरूपको कहता है। अत: उसका अर्थ सौरूप्य और वैरूप्य लिया गया है। सौभाग्यका अर्थ है सबको प्रिय होना और दुर्भाग्यका अर्थ है सबके द्वारा तिरस्कृत होना । जिसने अनेक जन्मोंमें तिरस्कार पाया है वह भी कभी पूजा जाता है। इसी प्रकार अनन्त जन्मोंमें पूजा प्राप्त करनेवाला भी तिरस्कृत होता है। अतः उनमें अनुराग कैसा और तिरस्कार पानेपर दुःख कैसा? जो बहुत जन्मोंमें पूजा जाता है वह पुनः तिरस्कारको प्राप्त करेगा। पूजा होनेपर आत्मामें वृद्धि नहीं होती और तिरस्कार होनेपर आत्मामें कोई हानि नहीं होती। संकल्पके कारण ही प्रीति और सन्ताप होते हैं केवल पूजा और तिरस्कारसे नहीं होते । कहा भी है जो मधुर वचनोंके द्वारा अपने निर्मल गुणोंके लिये संस्तुत होता है वही नाना प्रकारके कठोर वचनोंसे निन्दाका पात्र होता है। कैसा आश्चर्य है कि संसाररूपी संकटमें पड़ा हुआ यह प्राणी अनेक प्रकारके कर्मोंके फलको भोगता है। मनुष्योंका स्वामी होकर उनका नीच दास हो जाता है। पवित्र होकर पुनः अपवित्र हो जाता है। जो युवतियोंके प्रिय होते हैं वे ही दुर्भाग्य आनेपर द्वेषके पात्र बनते हैं। जो मनुष्य कभी उत्कृष्ट रत्नभूषणोंसे भूषित देखा गया है वही मनुष्य पुण्यहीन होनेपर दरिद्र देखा जाता है। जो बहुतसे मित्रों और बन्धु-वान्धवोंसे घिरा हुआ १. पूजातोऽपि-अ०। २. नर्वधित्वा-अ० ज०। ३. कान्ता च येषु युवतिः-ज० विषमाणरूपा देष्या भवत्यशुभबन्धमुपेत्य भूयः-आ० ज० । ४. क ये च-अ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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