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भगवती आराधना प्रवर्तते । बुद्धिपरिगृहीतवस्तुविषया श्रद्धेत्यविनाभावः श्रद्धाया ज्ञानेन ।
अत्रापरा व्याख्या-आत्मनो विषयाकारपरिणामवत्तिानं तदावरणक्षयोपशमजनितं, भम्यावरणापगमे तोयजन्मवत् । तद्गतविशुद्धिः प्रसन्नता अभिरुचिः श्रद्धा । श्रतिनिरूपितार्थविषया सत्यभावना दर्शनं । तदर्शनमोहोपशमक्षयोपशमनिमित्तं तोया'श्रयपंकाभावे जलप्रसादवत् । तस्मिन्नाराध्यमाने ज्ञानसिद्धिरवश्यभाविनी निराश्रयधर्मस्य केवलसिद्धय भावादिति ।।
तत्रेदं परीक्ष्यते, विषयाकारपरिणतिरात्मनो यदि स्याद्रपरसगन्धस्पर्शाद्यात्मकता स्यात्तथा च'अरसमरूवमगंधं अव्वंत्तं चेदणागुणमसई'--[समय० ४९]
इत्यनेन विरोधः । विरुद्धश्च नीलपीतादिपरिणामो नैकत्र यज्यते । एकदा आकारद्वयसंवेदनप्रसंगश्चबाह्यस्यैकं नीलादिविज्ञानगतमपरम् । विज्ञानगतविशुद्धिः प्रसन्नता अभिरुचिः श्रद्धेति वाऽसमीचीनं गदितम् चैतन्यस्य धर्मः श्रद्धानं नतु ज्ञानं, ज्ञानधर्मत्वे क्षायोपशमिकज्ञानविनाशे कथमवस्थितिदर्शनस्य । न हि धर्मिणि विनष्टे धर्मस्यावस्थितिः । चैतन्यमविनाशि तदाश्रयं तदिति चेत् ज्ञानस्य धर्मता नश्यति । कि च यो यस्य धर्मः स तस्य स्वरूपम् । न चान्यस्य धर्मिणो रूपं धर्मान्तरस्य प्रभवति । न हि बलाकायाः शुक्लता कुन्दकुसुमस्य कदाचन । एवं मतेः प्रसन्नता श्रुतादेन स्यात्, श्रुतादेर्वा प्रसन्नता मतेरिष्यते । एवं ज्ञानभे नहीं होती । बुद्धिके द्वारा ग्रहण की गई वस्तुमें श्रद्धा होती है अतः श्रद्धाका ज्ञानके साथ अविनाभाव है।
___ इस गाथाको लेकर एक अन्य व्याख्या इस प्रकार है-आत्माके विषयाकार परिणमनको ज्ञान कहते हैं । वह ज्ञान ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे उत्पन्न होता है । जैसे भूमिरूप आवरणको हटा देने पर पृथ्वीसे पानीका जन्म होता है। उस ज्ञानमें जो निर्मलता होती है उसे प्रसन्नता या स्वच्छता कहते हैं। और उसमें अभिरुचिको श्रद्धा कहते हैं। शास्त्रमें निरुपित अर्थक विषयमें सत्यभावना श्रद्धा है । वही दर्शन है। वह दर्शनमोहके उपशम या क्षयोपशमसे होता है। जैसे पानीमें मिश्रित कीचडके अभावमें जल निर्मल होता है। उस दर्शनकी आराधना करने पर ज्ञानकी सिद्धि अवश्य होती है क्योंकि जिस धर्मका कोई आश्रय नहीं हैं उसकी सिद्धि एकाकी नहीं होती।
अब इस व्याख्याकी परीक्षा करते हैं
यदि आत्मा विषयाकार रूप परिणमन करता है तो विषयकी तरह आत्मा रूप, रस, गन्ध और स्पर्शादिमय हो जायेगा। और ऐसा होने पर जो आत्माको अरस, अरूप, अगन्ध, अव्यक्त, अशब्द और चेतना गुणवाला कहा है उसके साथ विरोध आता है। तथा नील पीत आदि रूप परिणाम परस्परमें विरुद्ध होनेसे एक जगह नहीं रह सकते । तथा एक ही कालमें दो आकारोंको जाननेका प्रसंग आता है एक बाह्य नीलादि और दूसरा ज्ञानगत आकार । तथा ज्ञानमें जो विशुद्धि या प्रसन्नता है उसे अभिरुचि या श्रद्धा कहना भी समीचीन नहीं है। श्रद्धान चैतन्यका धर्म है, ज्ञानका नहीं। यदि उसे ज्ञानका धर्म माना जायगा तो क्षायोपशमिक ज्ञानके नष्ट होने पर दर्शन कैसे रह सकेगा। धर्मीके नष्ट होने पर धर्म नहीं रहता। यदि कहोगे कि चैतन्य अविनाशी है अतः दर्शनका वही आश्रय है तो वह ज्ञानका धर्म नहीं हो सकता। तथा जो जिसका धर्म होता हैं वह उसका स्वरूप होता है एक धर्मीका स्वरूप दूसरे धर्मीका नहीं हो सकता। बगुलोंकी पंक्तिका धर्म शुक्लता कभी भी कुन्दके फूलोंका धर्म नहीं हो सकती। इसी तरह मतिज्ञानकी निर्मलता
१. तोयाशय-आ० । २. सिद्धभा-अ० आ० । ३. यदि न स्या-अ० आ० ।
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