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________________ विजयोदया टीका तद्गोचराया अपि प्रसत्तेर्भेद इति क्षायिक्यां का वार्ता न तस्याः प्रत्यग्रायाः प्रादुर्भूतिः प्रलयो वा । न हि दर्शन मोहोदयं विना दर्शनस्याभावो युज्यते । यदि स्याद्दर्शनमोहनीय कल्पना अघटमाना भवेत् । अथ याथात्म्यविषया श्रद्धा आत्मप्रतिबंधकसद्भावान्नोदेति, तदपाये उद्गच्छति, यदि प्रतिबंधकारि किंचिन्न स्यात् । आत्मनि परिणामिनि सति किमिति सदा न भवेत् ? अतत्परिणामत्वं नात्मनि कदाचिदपि भवेत् । तत् अनुभवसिद्धश्चासौ सहकारिकारणानामसान्निध्यादात्मा श्रद्धानरूपेण न परिणमते । न तु किंचित्प्रतिबंधकमस्येति चेत् किं तत्सहकारि यस्याभावादनुत्पत्ति श्रद्धायाः ? अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यो हि हेतुफलभावः सर्व एव, तावंतरेण हेतुता प्रतिज्ञामात्रत एव कस्यचित्सा वस्तुचितायामनुपयोगिनीति प्रतिबंधकसद्भावानुमानमागमेऽभिमतं तदेवं सति न घटते । किंचित् श्रुतप्ररूपितार्थविषया सत्यभावेनेति वा संबंद्धम् । अवध्यादिनिरूपितार्थविषया सत्यभावना किं न दर्शनं ? अवध्यादिकमपि वस्तुयाथात्म्यसंस्पर्श । अथ श्रतग्रहणं समीचीनज्ञानोपयोगोपलक्षणमिति मन्यसे भवतु अलमतिप्रसंगेन "समत्तणाणदंसण वीरियसुहमं तहेव अवगहणं । अगुरुलहुमव्वा बाहमट्ठगुणा होन्ति सिद्धाणं ॥ [ ] इत्यनेन च व्याख्या विरुध्यते । गुणान्तरत्वेन उपन्यासानुपपत्तेः । क्षायिकक्षायोपशमिकयोर्भेदोऽस्ति श्रुतादि ज्ञानोंकी नहीं हो सकेगी और न श्रुतादि ज्ञानकी निर्मलता मतिज्ञानकी । इस प्रकार ज्ञान भेद होने पर उन ज्ञानोंमें होने वाली निर्मलता में भी भेद होता है । यह क्षायोपशमिक ज्ञानोंकी बात है । क्षायिककी क्या बात है । क्षायिकी निर्मलता न तो नवीन उत्पन्न होती है न नष्ट होती है । दर्शन मोहके उदयके बिना दर्शनका अभाव नहीं होता। यदि हो तो दर्शन मोहनीय कर्मकी मान्यता नहीं बनती । १५ यदि कहोगे कि प्रतिवन्धकका सद्भाव रहनेसे आत्मामें यथार्थ विषयक श्रद्धा नहीं होती, यदि कोई प्रतिबन्धक नहीं होता तो उसके अभाव में श्रद्धा प्रकट होती है । यदि आत्मा परिणामी है तो सदा श्रद्धा क्यों नहीं रहती । यदि आत्मा अपरिणामी है तो कभी भी श्रद्धा प्रकट नहीं Aai | इसलिये यह अनुभव सिद्ध है कि सहकारी कारणोंके न रहनेसे आत्मा श्रद्धान रूपसे परिमन नहीं करता, उसका प्रतिबन्धक कोई नहीं है । तब प्रश्न होता है कि वह सहकारी कौन है जिसके अभाव के कारण श्रद्धाकी उत्पत्ति नहीं होती । सर्वत्र कार्यकारणभाव अन्वय और व्यतिरेकके द्वारा ही जाना जाता है । अन्वय व्यतिरेक के बिना केवल कहने मात्र से ही यदि किसीमें कार्यकारणभाव हो तो वस्तु विचार में उसका कोई उपयोग संभव नहीं है उसमें वह अनुपयोगी है । इसीसे आगममें प्रतिबंधकके सद्भावके अनुमानको मान्य किया गया है । अर्थात् प्रतिबन्धकके होनेसे श्रद्धा प्रकट नहीं होती और उसके अभाव में प्रकट होती है । ऐसा होने पर आपका उक्त कथन घटित नहीं होता । तथा शास्त्र में निरूपित अर्थको विषय करने वाली सत्यभावना दर्शन है यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि तब प्रश्न होता है कि अवधि आदि ज्ञानोंके द्वारा निरूपित अर्थको विषय करने वाली सत्यभावना दर्शन क्यों नहीं है ? क्योंकि अवधि आदि ज्ञान भी यथार्थ वस्तुको विषय करते हैं । यदि कहोगे कि समीचीन ज्ञानोपयोग लक्षण वाला श्रुत ज्ञान है इसलिये उसका ग्रहण किया है तो आगममें जो सिद्धोंके आठ गुण-सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहन, अगुरुलघु १. तावदसति - आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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