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१६
भगवती आराधना
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वा न वा ? यदि नास्ति भावपंचकनिरूपणाकारिणा आगमेंन विरोधः । अथ अस्ति भेदःपरिणामः परिणामान्तरस्य स्वरूपं न भवति । परिणामक वस्य परिणामिस्वरूपता न्याय्या । यो भिन्नप्रतिबंधकापायजन्यौ, न तावन्योऽन्यस्य धर्मर्मिणौ यथा अवधिकेवले भिन्नप्रतिबंधकापायजन्ये, तथा न ज्ञानदर्शने ।
ज्ञानाराधना चारित्राराधनेति द्वैविध्यं कस्मान्नोपन्यस्तं इत्यत्र चोद्य प्रतिविधानायाह-णाणमाराधंतेण दंसणं होइ भयणिज्जं ।' ज्ञानशब्दः सामान्यवाची संशये, विपर्यासे, समीचीने च वृत्तः । संशयज्ञानं, विपर्यासज्ञानं, सम्यग्ज्ञानमिति प्रयोगदर्शनात् । तेन ज्ञाने परिणत आत्मा नियोगतस्तत्त्वश्रद्धाने विपरिणमत एवेति न नियोगोऽस्ति, मिथ्याज्ञानपरिणतस्य तत्त्वश्रद्धाया अभावात्। ततो ज्ञानस्य दर्शनाविनाभावित्वस्याभावात् न ज्ञानाराधनोक्त्या दर्शनाराधनावगंतु शक्येति न तथा संक्षेपाभिधानमागमे प्रक्रांतमिति भावार्थः। ‘णाणं' ज्ञानं । 'आराधतेण' आराधयता । 'दसणं' दर्शनं । 'होदि' भवति । 'भयणिज्ज' भजनीयं विकल्प्यम् । अत्र दसणशब्देन दर्शनविषयमाराधनमुच्यते । ततोऽयमर्थ:दर्शनाराधना भाज्यति भजनीयतया अविनाभावित्वाभावः सूचितः । सम्यग्ज्ञाने आराधिते भवत्याराधिता, मिथ्याज्ञानाराधनायां नेति भजनीयता । अथवा ज्ञानाराधना चारित्राराधनेति च शक्यते संक्षेप्तम । और अव्यावाध कहे हैं उसके साथ उक्त व्याख्याका विरोध आता है। क्योंकि एक गुणका अन्य गुणरूपसे उपन्यास नहीं किया जा सकता।
तथा क्षायिक और क्षायोपशमिकमें भेद है या नहीं ? यदि नहीं है तो पाँच भावोंका निरूपण करनेवाले आगमसे विरोध आता है । यदि भेद है तो एक परिणाम दूसरे परिणामका स्वरूप नहीं होता, इसलिए परिणामोंके समूहको परिणामीका स्वरूप मानना न्याय है।
तब जो भिन्न प्रतिबन्धकोंके अभावमें उत्पन्न होते हैं वे परस्परमें एक दूसरेके धर्म-धर्मी नहीं हो सकते। जैसे अवधिज्ञान और केवलज्ञान, अवधिज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण रूप भिन्न प्रतिवन्धकोंके अभावमें उत्पन्न होनेसे परस्परमें धर्म-धर्मी नहीं है उसी तरह ज्ञान और दर्शन भी परस्परमें धर्म-धर्मी नहीं हैं ।
शंका-ज्ञानाराधना और चारित्राराधना इस प्रकारसे दो आराधना क्यों नहीं कही ?
समाधान-इसका उत्तर देते हैं-'णाणमाराधतेण दंसणं होइ भयणिज्जं ।' यहाँ ज्ञान शब्द सामान्यवाची है क्योंकि संशय, विपर्यय और समीचीनमें रहता है । संशयज्ञान, विपरीतज्ञान, सम्यग्ज्ञान ऐसा प्रयोग देखा जाता है। इसलिए ज्ञानरूप परिणमन करनेवाला आत्मा नियमसे तत्त्व श्रद्धान रूपसे परिणमन करता ही है ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि जो आत्मा मिथ्याज्ञान रूपसे परिणमन करता है उसके तत्त्व श्रद्धाका अभाव होता है, इसलिए ज्ञान दर्शनका अविनाभावी नहीं है । अतः ज्ञानाराधनाके कहनेसे दर्शनाराधनाका ग्रहण शक्य नहीं है । इसलिए आगममें उस प्रकारसे संक्षेप कथन नहीं किया है। अतः ज्ञानकी आराधनासे दर्शनकी आराधना भजनीय है। यहाँ दर्शन शब्दसे दर्शन विषयक आराधनाको कहा है। अतः यह अर्थ हुआ कि दर्शन आराधना भजनीय है। इससे ज्ञानाराधनाके साथ दर्शनाराधनाके अविनाभावके अभावको सूचित किया है। अर्थात् सम्यग्ज्ञानकी आराधना करने पर तो दर्शनकी आराधना होती है, किन्तु मिथ्याज्ञानको आराधना करने पर दर्शनकी आराधना नहीं होती है। अथवा ज्ञानाराधना और चारित्राराधना इस प्रकारसे भी संक्षेप किया जा सकता है।
भावार्थ-दर्शन श्रद्धानको कहते हैं। श्रद्धान अज्ञात वस्तुमें नहीं होता। अतः श्रद्धाका
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