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________________ ८५० भगवती आराधना इय मज्झिममाराघणमणुपालित्ता सरीरपजहित्ता । हुति अणुत्तरवासी देवा सुविसुद्धलेस्सा य ।।१९२७॥ 'इय मज्झिमं' एवं मध्यमाराधनामनुपालय शरीरं त्यक्त्वा विशुद्धलेश्याधरा अनुत्तरवासिनो देवा भवन्ति ।।१९२७ ॥ दंसणणाणचरिते उक्किट्ठा उत्तमोपघाणा य । इरियाव पडिवण्णा हवंति लवसत्तमा देवा ।।१९२८ ।। 'दंसणणाणचरिते' सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेषु उत्कृष्टा उत्तमाभिग्रहा ईर्यापथं प्रपन्ना लवसत्तमा देवा भवन्ति ।।१९२८ ॥ कप्पोवगा सुरा जं अच्छरसहिया सुहं अणुहवंति । तत्तो अनंतगुणिदं सुहं दु लवसत्तमसुराणं ।। १९२९ ।। 'कप्पोवगा सुरा जं' कल्पोपपन्नाः सुराः अप्सरोभिस्सहिता यत्सुखमनुभवन्ति ततोऽप्यनन्तगुणितं लवसत्तमदेवानां ॥। १९२९ ॥ णाणम्मि दंसणम्मिय आउत्ता संजमे जहक्खादे । वड्ढिदतवोवघाणा अवहियलेस्सा सददमेव ।। १९३०॥ 'णाणम्मि दंसणम्मि य' ज्ञानदर्शनयोर्यथाख्याते च संयमे आयुक्ता वद्धिततपोऽभिग्रहाः सततं विशुद्धलेश्याः क्षपकाः । १९३० ॥ पजहिय सम्मं देहं सददं सव्त्रगुणावड्ढिदगुणड्ढा । देविंदरमठाणं लहंति आराधया खवया ॥। १९३१ ॥ 'जहिय देह' विहाय देहं सम्यक्सदा सर्वंगुणवर्धितगुणाढ्या देवेन्द्रचस्मस्थानं लभन्ते ।।१९३१॥ गा० - इस प्रकार मध्यम आराधनाका पालन करके शरीर त्याग कर विशुद्ध लेश्याके धारक अनुत्तरवासी देव होते हैं || १९२७|| गा०-- वे मध्यम आराधनाके पालक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्रमें उत्कृष्ट होते हैं । अर्थात् कल्पोपपन्न देवोंमें उत्पन्न कराने वाले रत्नत्रयके आराधकोंसे उत्कृष्ट होते हैं । उनकी तपश्चर्या उत्तम होती है, वे ईर्यापथ आस्रवके धारी होते हैं अर्थात् कषायरहित कायकी क्रियासे होनेवाला शुभास्रव ही उनके होता है । वे मरकर लवसत्तम अर्थात् ग्रैवेयक या अनुदिश विमानवासी देव होते हैं || १९२८ ॥ गा० - कल्पवासी देव अपनी देवांगनाओंके साथ जिस सुखको भोगते हैं उससे अनन्तगुणा सुख अहमिन्द्रदेव भोगते हैं । १९२९ ॥ गा० - जो क्षपक ज्ञान दर्शन और यश्चाख्यात चारित्रमें लोन रहते हैं, अपनी तपश्चर्याको निरन्तर बढाते हैं, वे विशुद्ध लेश्यावाले होते हैं || १९३० ॥ Jain Education International गा०—वे आराधक क्षपक सम्यक् भावना पूर्वक शरीर त्यागकर अनन्तगुणी अणिमा आदि ऋद्धियोंसे सम्पन्न उपरिम स्वर्ग में स्थान प्राप्त करते हैं || १९३१ || For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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