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________________ ३६० भगवती आराधना क्षपकशिक्षापरा गाथा खवओ किलामिदंगो पडिचरयगुणेण णिव्वुदि लहइ । तम्हा णिव्विसिदव्वं खवएण पकुव्वयसयासे ।।४६०॥ __ 'खवगो' क्षपकः । 'गिलामिदंगो' ग्लानशरीरः । 'पडिचरयगुणेण' शुश्रूषागुणेनैव, “णिवुदि लहदि' सुखं लभते । यस्मात् । तम्हा--तस्मान् णिग्विसिदव्वं-निष्ठव्यं । 'खवगेण' क्षपकेण । पकुव्वयसयासे विनयकारिणः समीपे । पगन्वीगदं ॥४६०॥ आयोपायविदंसीत्येतद्वयाख्यानायोत्तरप्रबन्धः खवयस्स तीरपत्तस्स वि गुरुगा होति रागदोसा हु । तम्हा छहादिएहिं य खवयस्स विसोत्तिया होइ ॥४६१।। ‘खवगस्स' क्षपकस्य । 'तोरपत्तस्स वि' तीरं प्राप्तस्यापि । 'रागदोसा गुरुगा होंति' रागद्वेषौ गुरू तीव्री भवतः । 'तम्हा' तस्मात् 'छुहादिएहि य' क्षुत्पिपासादिभिः परीषहैश्च कारणभूतैः । 'खवगस्स' क्षपकस्य 'विसोत्तिगा होइ' अशुभपरिणामो जायते ॥४६१।। थोलाइदूण पुव्वं तप्पडिवक्खं पुणो वि आवण्णो । खवओं तं तह आलोचेदुं लज्जेज्ज गारविदो ।।४६२।। 'थोलाइदूण पुवं' प्रव्रज्यादिक्रमेण तद्दिनपर्यवसानं रत्नत्रयातिचारं निवेदयामीति पूर्व प्रतिज्ञाय । 'तप्पडिवक्ख' तस्यापराधप्रत्याख्यापनस्य प्रतिपक्षेन निवेदनं । 'आवण्णो' आपन्नः प्राप्तः । 'खवगो तं तह आलोचेउ लज्जेज्ज गारविगो' क्षपकस्तमपराधं तथा त्वाचरितक्रमेण गदितु जिन्हेति संभावनागुरुः ।।४६२॥ तो सो हीलणभीरू पूयाकामो ठवेणइत्तो य । णिज्जूहणभीरू वि य खवओ वि न दोसमालावे ॥४६३।। 'तो' पश्चात् । सो' क्षपकः । 'होलणभोरू' ज्ञातमदीयापराधा इमे मामवजानन्ति इति अवज्ञाभोरुः । गा०-यतः रोगसे ग्रस्त क्षपक आचार्यके सेवागुणसे सुख प्राप्त करता है, अतः क्षपकको सेवा करनेवाले आचार्यके समीप ठहरना चाहिये ।।४६०॥ प्रकारकका कथन समाप्त हुआ। आय अपाय विदर्शित्व गुणका कथन करते हैं गा०-यद्यपि क्षपक संसार समुद्रके किनारे पहुंच जाता है फिर भी उसे तीव्र रागद्वेष होते हैं । अतः भूख प्यासकी परीषहोंके कारण क्षपकके अशुभ परिणाम होते हैं ॥४६१॥ गा०-क्षपक पूर्व में प्रतिज्ञा करता है कि दीक्षा लेनेके दिनसे समाधि धारण करनेके दिन तक रत्नत्रयमें जो दोष लगे हैं उन सबको मैं गुरुके सामने निवेदन करूँगा। ऐसी प्रतिज्ञा करके भी जब अपराध निवेदनका समय आता है तो अपना बड़प्पन जानकर क्षपक उस अपराधको जिस प्रकार वह किया गया उसी प्रकारसे कहने में लज्जा करता है ।।४६२॥ गा०-पश्चात् वह क्षपक डरता है कि मेरे अपराधको जानकर ये सब मेरी अवज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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