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________________ भगवती आराधना अणिहुदपरगदहिदया तावो वग्धीव दुट्ठहिदयाओ । पुरिसस्स ताव सत्तू व सदा पावं विचितंति ॥९५४।। 'अणिहदपरगदहिदया ताओ' अनिभृतं परगतं हृदयमासामिति अनिभृतपरगतहृदया भवन्ति । अनिवारितपरासक्तचित्ततादोषाः । 'वग्धीव दुट्ठहिदयाओ' दुष्टहृदयमासां अकृतेऽप्यपकारे यथा व्याघ्री परं मारयितुमेव कृतचित्तेति दुष्टहृदया एवमिमा अपि । 'पुरिसस्स ताव' पुरुषस्य तावत् । 'सत्तू व सदा पावं विचितंति' शत्रुरिव सदा पापमेव अशुभमेव चेतसि कुर्वन्ति । यथा यो रिपुः कश्चित्कस्यचित्सर्वदा धनमस्य 'विनश्यतु, विपदोऽस्य भवन्त्विति चित्तं करोति तथैव ता अपि ।।९५४।। संझाव गरेसु सदा ताओ हुँति खणमेत्तरागाओ । वादोव महिलियाण हिदयं अदिचंचलं णिच्चं ॥९५५।। 'संझाव गरेसु सदा ताओ होंति' संध्या इव नरेषु सदा ता भवन्ति । 'खणमित्तरागाओ' अल्पकालरागाः । अस्थिररागता नाम दोषः प्रकटितः । यथा संध्याया रक्तता विनाशिनी। 'महिलियाणं हिदयं अदिचंचलं णिच्चं' स्त्रीणां हृदयं अतिचञ्चलं नित्यं । किमिव ? 'वादो व' वात इव ॥९५५।। जावइयाई तणाई वीचीओ वालिगाव रोमाइं । लोए हवेज्ज तत्तो महिलाचिंताई बहुगाइं ॥९५६॥ 'जावइयाई' यावन्ति तृणानि, 'वोचयः', वालुकाः, रोमाणि' च जगति ततो युवतीनां चिन्ता बढ्यः ।।९५६॥ आगास भूमि उदधी जल मेरू वाउणो वि परिमाणं । मार्नु सक्का ण पुणो सक्का इत्थीण चित्ताई ॥९५७।। भी अन्तर नहीं करतीं। यह मेरा मान्य कुलीन पति है और यह दासीका पुत्र नीच है, मैं इसकी स्वामिनी हूँ यह भेद नहीं करती ।।९५३।। गा० टी०-उनका चित्त निरन्तर पर पुरुषमें रहता है। तथा व्याघ्रीकी तरह उनका हृदय दुष्ट होता है। जैसे व्याघ्री कोई अपकार न करने पर भी दूसरेको मारनेका ही विचार रखती है उसी तरह ये स्त्रियाँ भी होती हैं। वे शत्रुके समान सदा पुरुषके अशुभका ही चिन्तन करती हैं। जैसे किसीका कोई शत्रु सदा चित्तमें सोचता रहता है-इसका धन नष्ट हो जाये, इस पर विपत्तियाँ आयें, वैसे ही स्त्रियाँ भी सदा बुरा विचारा करती हैं ।।९५४॥ गा०-सन्ध्याकी तरह स्त्रियोंका राग भी अल्प काल रहता है। जैसे सन्ध्याकी लालिमा विनाशीक है वैसी ही स्त्रियोंका अनुराग भी विनाशीक है। इससे अस्थिर रागता नामक दोष प्रकट किया है । तथा महिलाओंका हृदय वायु को तरह सदा अति चंचल होता है ॥९५५।। गा०—लोकमें जितने तृण हैं, (समुद्रमें) जितनी लहरें हैं, बालुके जितने कण हैं तथा जितने रोम हैं, उनसे भी अधिक स्त्रियोंके मनोविकल्प हैं ।।९५६।। १. विनश्यति-अ० आ० । २. भवन्तीति-अ० आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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