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विजयोदया टीका
इंदियात्थी वयवारिम' हीणिदा उवायेण । विणयवरत्तावद्धा सक्का अवसा वसे कादु ॥१४०३ ॥
'इ' दियकसायहत्त्थी' इन्द्रियकपायहस्तिनः उपायेन व्रतवारीमुपनीताः विनयवरत्राबद्धा अवशा अपि शक्या वशे नेतुं ||१४०३ ||
इ दियकसा यहत्थी वोलेढुं सीलफलियमिच्छता ।
धीरेहिं रुंभिदव्वा धिदिजमलारुप्पहारेहिं ॥। १४०४ ॥ इन्द्रियकसा यहस्तिनः शीलपरिघालंघनैषिणो रोद्धव्या धीरैधृतिकर्णतोदप्रहरैः || १४०४||
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इ दियका हत्थी दुस्सीलवणं जदा अहिलसेज्ज ।
कुसेण तइया सक्का अवसा वसं कादूं ।। १४०५ ।। 'इंदियकसायहत्थी' इन्द्रियकषायहस्तिनः दुःशीलवनं प्रवेष्टुं यदाभिलषन्ति तदा अवशा अपि वशे कर्तुं शक्यन्ते ज्ञानां कुशेन ॥। १४०५ ।।
जदि विसयगंधहत्थी अदिणिज्जदि रागदोसमयमत्ता | विण्णा'णज्झाणजोहस्स वसे णाणंकुसेण विणा || १४०६ ॥
'जदि विसयगंध हत्थी' यद्यपि विषयगन्धहस्तिनः स्वयं ग्रन्थाटवीं प्रविशन्ति रागद्वेषमत्ता न तिष्ठेयुर्वि - ज्ञानध्यानयोधस्य वशे ज्ञानांकुशेन विना ।। १४०६॥
विसयवणरमणलोला बाला इं दियकसायहत्थी ते ।
पसमे रामेदव्वा तो ते दोसं ण काहिंति । १४०७॥ 'विसयवणरमणलोला' विषयवनरमणलोला: वाला इन्द्रियकषायहस्तिनः ते रतिमुपनेयाः प्रशमेन ततस्ते दोषं न कुर्वन्ति ॥ १४०७ ॥
गा० - इन्द्रिय कषायरूपी हाथी यद्यपि स्वच्छन्द है तथापि व्रतरूपी बाड़े में ले जाकर विनयरूपी रस्सीसे उपायपूर्वक बाँधे जानेपर वशमें लाये जा सकते हैं ||१४०३ ||
गा० - इन्द्रिय और कषायरूप हाथी शीलरूपी अर्गलाको लांघना पसन्द करते हैं । अतः धीर पुरुषों को उनके दोनों कानोंके पास धैर्यरूपी प्रहार करके रोकना चाहिए || १४०४ ||
गा०-
- इन्द्रिय और कषायरूप हाथी जब दुःशीलरूपी वनमें प्रवेश करना चाहे तो उसे ज्ञानरूपी अंकुशसे वशमें करना शक्य है || १४०५ ||
गा० - यदि रागद्वेषरूपी मदसे मस्त विषयरूपी गन्धहस्ती ज्ञानाकुंशके विना विज्ञान ध्यानरूपी योधा के वशमें नहीं रहता और परिग्रहरूपी वनमें प्रवेश करता है || १४०६ ||
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गा०- तो इन्द्रिय और कषायरूप बालहस्ती विषयरूपी वनमें क्रीड़ा करनेके प्रेमी होते हैं । उन्हें प्रशमरूपी वनमें अर्थात् आत्मा और शरीरके भेदज्ञानसे प्रकट हुए स्वाभाविक वैराग्य में रमण कराना चाहिए तब वे दोष नहीं करेंगे || १४०७ ।।
१. मदीणि ज० मु०, मूलारा० ।
२. चेट्ठेज्ज झाण- मूलारा० ।
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