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________________ ७०० भगवती आराधना रोगातङ्के महतोऽल्पांश्च व्याधीन् । विपुलां वा वेदनां धृतिबलेन जय त्वमदीनोऽमूढश्च प्रत्यूहान् चारित्रस्य । वीतरागकोपतादि चारित्रं । तद्व्याधिप्रतीकारार्थेषु वस्तुषु आदरवतो व्याधिषु वेदनासु च द्वेषवतो नश्यति । ततश्चारित्रविघ्नास्त्वया जेतव्या इति भावः ॥१५१०॥ सव्वे वि य उवसग्गे परिसहे य तिविहेण णिज्जिणहि तुमं । णिज्जिणिय सम्ममेदे होहिसु आराहओ मरणे ॥१५११।। 'सव्वे वि य उवसग्गे' सवाश्चोपसर्गान् परीषहांश्च मनोवाक्कायर्जय । उपसर्गपरीषहजयदुःखाभीरुता मनसा जयः । भीतोऽयमिति दयया न दुःखानि हरन्ति । सन्निहितद्रव्यादिसहकारिकारणमसद द्यमुदयागतं अनिवार्यवीयं बलं प्रयच्छत्येवेति धृतिबलेन भावना मनसा जयः । श्रान्तोऽस्मि वेदनादुःसहात्मतां पश्यत मदीयामिमां अतिकष्टामवस्थां । दग्धोऽस्मि ताडितोऽस्मि इत्येवमादिदीनवचनानुच्चारणं । असकृदनुभूतार्थाः परीषहाः क्षुदादयः, उपसर्गाश्च पूर्व । पूत्कुर्वन्तमपि नामी मश्चन्ति । केवलं धतिरहितोऽयं वराको रारटीति निन्द्यते । न सन्मार्गात्प्रच्यावयितुं इमे क्षमा इति उदारवचनता वचनेन जयः । अदीनेक्षणमुखरागवत्ता अचलता च कायेन जयः । 'णिज्जिणिय सम्ममेदे' निजित्यवं सम्यगेतानपसर्गपरीषहान्मरणे मृतिकाले । आराधओ होहिसि' रत्नत्रयपरिणतो भविष्यसि । उपसर्गपरीषहव्याकुलितचेतसो नैवाराधकता ॥१५११।। संभर सुविहिय जं ते मज्झम्मि चदुविधस्स संघस्स । बूढा महापदिण्णा अहयं आराहइस्सामि ॥१५१२॥ 'संभर' स्मृति निधेहि । 'सुविहिद' सुचारित्र । किं स्मरामि इति चेत् 'त' तां प्रतिज्ञां यां कृतवानसि । त्याग ही चरित्र है। व्याधिको दूर करनेके उपायोंमें आदर करनेवाले तथा व्याधि और वेदनासे द्वेष करनेवालेका चारित्र नष्ट होता है। अतः तुम्हें चारित्रके विघ्नोंको जीतना चाहिये ।।१५१०।। गा०-दी. हे क्षपक ! तुम सब उपसर्गों और परीषहोंको मन वचन कायसे जीतो। उपसर्ग और परीषहोंके जीतने में जो दुःख होता है उससे न डरना मनसे जीतना है । यह डरपोक है अतः दया करके उपसर्ग परीषह उसे दुःख नहीं देंगे ऐसी बात नहीं है। द्रव्यादि सहकारी कारणोंके रहने पर असातावेदनीय कर्म उदयमें आता है और उसकी शक्तिको रोकना शक्य नहीं होता तब वह कष्ट देता ही है। धैर्यरूपी बलपूर्वक ऐसी भावना होना मनसे जीतना है । मैं थक गया हूँ, मेरी इस अतिकष्टकर और दुःसह वेदना रूप अवस्थाको देखो, मैं दुःखमें जल रहा हूं, कष्ट ने मुझे मार डाला इत्यादि दीन वचनोंका उच्चारण न करना । मैंने पूर्व में अनेक बार भूख आदि परीषहों और उपसर्गोको सहा है। चिल्लाने पर भी ये छोड़ते नहीं हैं। केवल यह बेचारा धैर्य खोकर रोता है ऐसी निन्दा करते हैं। ये मुझे सन्मार्गसे डिगानेमें समर्थ नहीं हैं। इस प्रकारके उदार वचन बोलना वचनसे जीतना है। आखोंमें और मुखपर दीनताका भाव न होना, मुखपर प्रसन्नताका रहना, विचलित न होना कायसे जीतना हैं। इस प्रकार इन परीषहों और उपसर्गोंको सम्यक् रूपसे जीतनेपर मरते समय तुम रत्नत्रयरूपसे परिणत हो सकोगे। जिसका चित्त उपसर्ग और परीषहसे व्याकुल रहता है वह आराधक नहीं हो सकता ॥१५११।। गा०-हे सुचारित्रसे सम्पन्न क्षपक ! तुमने चतुर्विध संघके मध्यमें जो महती प्रतिज्ञा की थी कि मैं आराधना करूँगा उसे स्मरण करो ॥१५१२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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