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________________ wwman २८ भगवती आराधनां वाक्यार्थः । आस्रवबंधहेतवो ये परिणामास्ते न कर्तव्याः, न निर्वास्तेषां परिहरणं परिवर्जनं चारित्रमिति संबंधनीयम् । परिहार्य एव परिज्ञानमंतरेणापि तत्परिहारो दृश्यते । यथा शत्रुजनाध्यासितं देशं परिहरति कश्चित्तत्र तेषां अवस्थानमप्रतिपद्यमानोऽपि मार्गान्तरगामी एव'मज्ञात्वापि परिहार्य परिहरेदिति विनाभावितेति चेदयमभिप्रायः सूरे-सामान्यशब्दा अपि विशेषप्रवृत्तयो दृश्यते । तथा हि-गोशब्दो गोत्वसामान्यांगीकरणेन प्रवृत्तो गौर्न इंतव्या, गौस्तदा न स्प्रष्टव्या इत्यादावन्यत्र विशेषमैवाभिधेयी-करोति । महति गोमंडले गोपालकमासीनमेत्य कश्चित्पृच्छति गौदृष्टा भवतेति । अत्र वाक्ये गोशब्दस्तदभिप्रेतां कालाक्षी स्वस्तिमती वा प्रत्यायति । एवमत्र परिहारशब्दः परिवर्जनसामान्यगोचरोऽपि नियतानेकपरिहार्यविषये परिहरणे प्रयुक्तः । न च नियोगभाव्यनेकपरिहार्यविषयंपरिहरणं असकृवृत्तिपरिज्ञानं विना युज्यते । इति मिथ्यादर्शनं, असंयमाः, कषाया, अशुभाश्च योगाः प्रत्येकमनेकविकल्पाः सततं परिहरणीयाः । तत्कथं परिहरेदज्ञः। ननु ज्ञानचारित्रयोरविनाभाविता द्योत्या 'नादूण होदि परिहारो' इत्यनेन न श्रद्धानाविनाभावितेत्याशंकायामाह'तं चेव हवई' इत्यादिकं । तं चे व तदेव चैतन्यं । हवई' भवति, 'णाणं' ज्ञानं । 'तं चेव य' तदेवं च "हवइ' भवति, 'सम्मत्तं' तत्त्वश्रद्धानं चेति चैतन्यद्रव्याव्यतिरेकात् ज्ञानदर्शनयोरेकता ख्याता । ततो ज्ञानाहेतु कर्तव्यको ग्रहण करना, गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा और परीषह जयको अंगीकार करना चारित्र है। आस्रव और वन्धके हेतु जो परिणाम हैं वे नहीं करने चाहिए। अतः उनका परिहार अर्थात् त्याग चारित्र है। इस प्रकार सम्बन्ध लगाना चाहिये। जो पदार्थ त्यागने योग्य होता है, उसे जाने विना भी उसका त्याग देखा जाता है : जैसे कोई शत्रुओंसे युवत स्थानको छोड़ता है। यद्यपि वह उस स्थान में उनके आवासको नहीं जानता, फिर भी दूसरे मार्गसे चला जाता है। इस प्रकार त्यागने योग्यको नहीं जानते हुए भी त्यागना चाहिए । शङ्का-तब तो 'त्याज्य पदार्थको जानकर छोड़ना चाहिये' इस प्रकारका अविनाभाव नहीं रहा? समाधान--आचार्यका अभिप्राय यह है कि सामान्य शब्दोंकी भी प्रवृत्ति विशेषमें देखी जाती है। जैसे 'गौ' शब्द गौसामान्यको लेकर प्रवृत्त होता है जैसे गौका वध नहीं करना चाहिए। गौको छूना चाहिए। किन्तु अन्यत्र यही सामान्यवाची गौ शब्द विशेष गौके अर्थ में प्रवृत्त होता देखा जाता है। जैसे--किसी बड़े गोमण्डलमें बैठे हुए ग्वालेके पास जाकर कोई पूछता हैआपने गौ देखी है क्या ? इस वाक्यमें गौ शब्द उस व्यक्तिको इष्ट काली गाय या अमुक प्रकारको गायका बोध कराता है । इसी तरह परिहार शब्द यद्यपि त्याग सामान्यका वाचक है तथापि यहाँ उसका प्रयोग निश्चित अनेक त्यागने योग्य विषयोंके त्यागमें हुआ है। और नियमसे त्यागने योग्य अनेक विषयोंका त्याग बार-बार जाने विना सम्भव नहीं है। इस प्रकार मिथ्यादर्शन, असंयम, कषाय, अशुभयोग और इनमेंसे प्रत्येकके अनेक भेद निरन्तर त्यागने योग्य हैं। जो अनजान है वह कैसे उनका त्याग कर सकता है ? शङ्का-'जानकर परिहार होता हैं' इस वचनसे ज्ञान और चारित्रकी अविनाभाविता प्रकट होती है, श्रद्धानकी अविनाभाविता प्रकट नहीं होती ? __ इस आशङ्काका आचार्य उत्तर देते हैं-वही चैतन्य ज्ञानरूप है और वही चैतन्य सम्यक्त्वरूप है । अतः चैतन्यरूप द्रव्यसे अभिन्न होनेसे ज्ञान और दर्शनकी एकता बतलाई है। अतः १. एवमन्यत्रापि परिहार्यात् परि-आ० । २. नेन श्रद्धा-अ० ज० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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