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________________ विजयोदया टीका ७८३ तं च कार्यकृतं सम्बन्धं स्पष्टयत्युत्तरगाथा माया पोसेइ सुयं आधारो मे भविस्सदि इमोत्ति । पोसेदि सुदो मादं गब्भे धरिओ इमाएत्ति ।।१७५५।। 'माया पोसेदि सुदं' माता पोषयति सुतं । 'आधारो मे भविस्सदि इमोत्ति' अयं ममाधारो भविष्यतीति । 'पोसेदि सुवो मावं' पोषयति सुतो मातरं । 'गन्भे परिदो इमाएत्ति' गर्भ धारितोऽनयेति ।।१७५५।। उपकारापकारयोः प्रतिबन्धात् शत्रुता मित्रता वेति तत् कथयति होउण अरी वि पुणो मित्तं उवकारकारणा होइ । पुनो वि खणेण अरी जायदि अवयारकरणेण ।।१७५६।। 'होऊण अरी वि' शत्रुरपि भूत्वा । 'पुणो' पुनः । 'मित्तो होदि' सुहृद्भवति । स एवारिः। कुतः ? 'उपकारकरणा' उपकारकरणेन । 'पुत्तोवि खणेण अरी जायदि' पुत्रोपि क्षणेन शत्रुर्भवति, केन ? अपकारकरणन, निर्भत्सनताडनाद्यपकरणक्रियायाः । यस्मादेवं ॥१७५६।। तम्हा ण कोह कस्सइ सयणो व जणो व अत्थि संसारे । __ कज्ज पडि हुँति जगे णीया व अरी व जीवाणं ॥१७५७॥ 'तम्हा' तस्मात् । ' कोइ कस्सइ सयणो व जणो व अत्थि संसारे' नैव कश्चित्कस्यचित्स्वजनः परजनो वा विद्यते । 'कज्जं पडि होदि गीगा व अरी व जन:' कार्यमेवोपकारापकारलक्षणं प्रति बन्धवः शत्रवश्च भवंति । न स्वाभाविकी बन्धुता शत्रुता वा जीवानामस्ति उपकारापकारक्रिययोरनवस्थितत्वात्तन्मलोऽरिमित्रभावोप्यनवस्थित इति न रागद्वषो क्वचिदपि कार्यों। मत्तोऽन्ये सर्व एव प्राणभूत इति कार्यान्यत्वानुप्रेक्षेति प्रस्तुताधिकारेणाभिसम्बन्धः ॥१७५७॥ आगे उस कार्यवश हुए सम्बन्धको दृढ़ करते हैं गा०-यह मेरा बुढ़ापेमें आधार होगा इस भावनासे माता पुत्रका पालन करती है और · पुत्र माताका पालन करता है कि इसने मुझे गर्भ में धारण किया था ॥१७५५।। आगे कहते हैं कि शत्रुता और मित्रता उपकार और अपकारसे बँधे हैं गा०-शत्रु होकर भी उपकार करनेसे मित्र हो जाता है। अपकार करनेसे पुत्र भी क्षणभरमें शत्रु हो जाता है। अर्थात् यदि पुत्र माता पिताका तिरस्कार करता है उन्हें मारता है तो वह शत्रु ही प्रतीत होता है ॥१७५६।। गा०-इसलिये संसारमें कोई किसीका न स्वजन है और न परजन है। उपकार और अपकार रूप कार्यको लेकर ही जीवोंके मित्र या शत्रु बनते हैं ।।१७५७।।। टो०-जीवोंमें न तो स्वाभाविक शत्रुता है और न स्वाभाविक बन्धुता है। उपकार और अपकाररूप क्रिया भी स्थायी नहीं है इसलिये उपकार मूलन मित्रता और अपकारमूलक शत्रुता भी स्थायी नहीं है। अतः न किसीसे राग करना चाहिये और न किसीसे द्वष करना चाहिये । सभी प्राणी मुझसे अन्य है इस प्रकार अन्यत्वानुप्रेक्षा करना चाहिये ॥१७५७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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