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________________ विजयोदया टीका २६७ 'गच्छाणुपालणत्थं' गच्छानुपालनार्थ । 'आहोइय' विचार्य । 'अत्तगुणसम' आत्मनो गुणः समानं । 'निक्ख" भिक्ष । 'तो' ततः । 'तम्मि' तस्मिन् । 'गणविसरगं' गणत्यागं । 'अप्पकहाए' अल्पया कथया । 'कूणइ धीर' करोति धीरः । अन्ये तु वदन्ति 'अप्पणो' कथयति ॥२७६॥ किमर्थमेवं प्रयतते सूरिः ? अधोच्छित्तिणिमित्तं सव्वगुणसमोयरं तयं णच्चा । अणुजाणेदि दिसं सो एस दिसा वोचि बोधिचा ॥२७७।। 'अवोच्छित्तिणिमित्तं' धर्मतीर्थस्य ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकस्य व्युच्छित्तिर्मा भूदित्येवमर्थ । 'सव्वगुणसमोयरं' सर्वगुणसमन्वितं । 'तगं' तक 'णच्चा' ज्ञात्वा, 'अणुजाणेदि' अनुज्ञां करोति । 'दिसं' आचार्यः 'सो' सः एषः । दिसा आचार्यः 'वोत्ति' युष्माकमिति । 'बोधित्ता' बोधयित्वा । दिसा समता' ॥२७७॥ क्षमाग्रहणक्रमं निरूपयति आमंतेऊण गणिं गच्छम्मि य तं गणिं ठवेदूण । तिविहेण खमावेदि हु स वालउड्ढाउलं गच्छं ।।२७८|| . 'आमंतेऊण गणि' आमंत्र्य आचार्य । 'गच्छम्मि य' गणे । 'तं गणि ठवेदण' तं आत्मनानुज्ञातं स्थापयित्वा, स्वयं पृथग्भूत्वा । 'तिविधेण खमावेदि खु स बालउड्ढाउलं गच्छं' मनोवाक्कायैहियति क्षमांस बालवृद्धः संकीर्ण गणं ॥२७८॥ जं दीहकालसंवासदाए ममकारणेहरागेण । कडुगपरुसं च भणिया तमहं सव्वं खमावेमि ।।२७९।। __'जं दोहकालसंवासदाए' दीर्घकालं सह संवासेन यज्जातं ममत्वं, स्नेहो, द्वेषो, रागश्च तेन । 'जं' यत् 'कडुगपरुसं च भणिया' कटुकं परुपं वा वचः भणिताः 'तं' तत् युष्मान् । 'सव्वं खमावेमि' सर्वान् क्षमा ग्राहयामि ॥२७९॥ पश्चात् वह धीर आचार्य थोड़ीसी बातचीत पूर्वक उस पर गणका त्याग करता है ॥२७६।। आचार्य ऐसा क्यों करते हैं ? यह कहते हैं गा०-टी०–ज्ञानदर्शन चारित्रात्मक धर्मतीर्थकी व्युच्छित्ति न हो, इसलिए उसे सब गुणोंसे युक्त जानकर यह तुम्हारा आचार्य है ऐसा शिष्योंको समझाकर आप इस गणका पालन करें ऐसा उस नवीन आचार्यको अनुज्ञा करते हैं ।।२७७|| दिसा प्रकरण समाप्त हुआ। अब क्षमाग्रहणका क्रम कहते हैं गा०-टी०-आचार्यको बुलाकर गणके मध्य में उस अपने द्वारा स्वीकृत गणीको स्थापित करके और स्वयं अलग होकर वाल और वृद्ध मुनियोंसे भरे उस गणसे वह पुराने आचार्य मन वचन कायसे क्षमा माँगते हैं ।।२७८।। गा०-टो०-दीर्घकाल तक साथ रहनेसे उत्पन्न हुए ममता, स्नेह, द्वेष और रागसे जो कटुक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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