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________________ भगवती आराधना 'वोढुं गिलावि देह' शरीरोद्वहन हर्षरहितः । 'पन्चोढव्वं इणमसुइभारोत्ति' परित्यागार्हमिव अशुचिभारभूतं शरीरमिति कृतचित्तः । 'तो' पश्चाद् 'दुःखभारभोदो' दुःखभाजनाच्छरीराद्भीतः । ' कयपरिकम्मो ' कृतसमाधिमरणपरिकरः । 'गणं' शिष्यवृन्दं । 'उवेदि' ढौकते । अन्येषां पाठः 'वोढुं गिलामि देहं ' इति । ते व्याख्यानयन्ति - शरीरं वोढुं अकृतादरोऽस्मि । पव्वोढव्व मिणमसुइभारीत्ति परित्याज्यमिदं अशुचिभारभूतं शरीरमिति कृतनिश्चयः ॥ २७३॥ २६६ सल्लेहणं करें तो जदि आयरिओ हवेज्ज तो तेण । ता वि अवस्था चिंतेदव्वं गणस्स हियं ॥ २७४॥ 'सल्लेहणं करेंतो' सल्लेखनां कर्तुमुद्यतः । 'जइ' यदि 'आयरिओ हवेज्ज' आचार्यो भवेत् । 'तो' ततः । 'ते' तेन । 'ताए वि' तस्यामपि । 'अवस्था' अवस्थायां । 'चितेयव्वं' चिन्तनीयं । 'गणस्स' गणस्य । 'हिय' हितं ॥ २७४॥ कालं संभावित्ता सव्वगणमणुदिसं च वाहरिय | सोमतिहिकरणणक्खत्तविलग्गे' मंगलोगासे ॥ २७५ ॥ 'कालं संभावित्ता' आत्मनः आयुःस्थिति विचार्य । 'सव्वगणं' सर्वगणं । 'अणुदिसं च' वालाचार्यं च । 'वाहरिय' व्याहृत्य । 'सोमतिहिकरणणक्खत्तविलग्गे' सौम्ये दिने, करणे, नक्षत्रे, विलग्ने 'मंगलोगा से' शुभे देशे ॥ २७५॥ गच्छा पालणत्थं आहोइय अत्तगुणसमं भिक्खू | तो तम्मि गणविसग्गं अप्पकहाए कुणदि धीरो || २७६ || गा० - टी० - यह अपवित्र और भाररूप शरीर त्यागने योग्य है ऐसा निश्चय करके जो शरीरको धारण करनेसे ग्लानि करता है उसे शरीर के धारण करने में कोई हर्षं नहीं होता । पीछे दुःखके घर इस शरीरसे डरकर समाधिमरणकी तैयारी करता हुआ अपने शिष्योंके पास जाता है । _दूसरे आचार्य 'वोढुं गिलामि देहं ' ऐसा पाठ पढ़ते हैं वे उसकी व्याख्या इस प्रकार करते हैं- मुझे शरीर धारण करनेमें कोई रुचि नहीं है यह अशुचि और भारभूत शरीर छोड़ने योग्य है ऐसा मैंने निश्चय किया है || २७३ || Jain Education International गा०—टी०–सल्लेखना करनेवाले दो प्रकारके होते हैं - एक आचार्य, दूसरे साधु । यदि आचार्य हो तो उसे उस अवस्था में भी गणका हित विचारना चाहिए । अर्थात् आचार्य यदि सल्लेखना धारण करनेका निश्चय करे तो उसे अपने संघके सम्बन्ध में भी विचार करना चाहिए कि उसकी क्या व्यवस्था की जाये || २७४॥ गा० - दी ० - अपनी आयुकी स्थिति- विचारकर समस्त संघको और बालाचार्यको बुलाकर शुभ दिन, शुभकरण, शुभनक्षत्र और शुभलग्न में तथा शुभ देशमें || २७५।। गा० टी० -- गच्छका अनुपालन करनेके लिए गुणोंसे अपने समान भिक्षुका विचार करके १. गो तह मं- अ० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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