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विजयादया टीका
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ऐन्द्रियमतीन्द्रियं वा तदावहत्या कर्पति धर्मे तीव्रो रागः । तीव्रधर्मरागो वा यतिरात्मनः सकलं सुखमावहति । वात्सल्यं इत्येतद्व्याख्यातं गाथयाऽनया ॥ ३१८॥
वैयावृत्त्यस्य च भक्तिर्नाम यो गुणस्तं व्याचष्टे
अरहंतसिद्धभत्ती गुरुभत्ती सव्वसाहुभत्ती य ।
आसेविदा समग्गा विमला वरधम्मभत्ती य || ३१९ ||
'अरहंत सिद्धभत्ती' तत्रार्हन्तो नामातिक्रान्ते तृतीये भवे दर्शनविशुद्धयादिपरिणामविशेषवद्ध तीर्थकरत्वनामकर्मातिशयाः, स्वर्गावतरणादिपदुरवापपञ्चमहाकल्याणभागिनः घातिकर्मप्रलयाधिगतसकलद्रव्यत्रिकालगोचरस्वरूपावभासनपटुनिरतिशयज्ञानदर्शन मोहोन्मूलनोपजातवीतरागसम्यक्त्वाः, चारित्रमोहोत्पाटनलब्धवीतरागभावाः, वीर्यान्तरायकर्मप्रक्षयाविर्भूतानन्तवीर्याः, परीतसंसारभव्यजनोद्धरणवद्धप्रतिज्ञाः, अष्टमहाप्रातिहार्यचतुस्त्रिंशदतिशय विशेषाः । सिद्धा नाम मिथ्यात्वादिपरिणामोपनीतकर्माष्टकबन्धनिर्मुक्ताः अजरामराज्याबाधा उपमातीतानन्तसुखाः जाज्वल्यमाननिरावरणज्ञानतनवः पुरुषाकारावाप्तपरमात्मावस्थाः । एतयोरर्हत्सिद्धयोभक्तिः । गुरुशब्देनात्राचार्योपाध्याय गृहीतो तयोर्भक्तिः । सव्वसाहभत्ती य' सर्वसाधुभक्तिश्च । 'आसेविआ' आसेविता भवति । 'समग्गा' समस्ता 'विमला वरधम्मभत्तीय' प्रधाने धर्मे रत्नत्रयात्मके भक्तिश्च आसेविता भवति । अर्हदाद्युपदिष्टवैयावृत्त्यकरणात्तेषां भक्तिः कृता भवति । रत्नत्रयवतामुपकारकरणात्तदादरत एव तत्र भक्तिः । वैयावृत्यं भक्तिमापादयति अर्हदादिष्वित्युक्तं ॥३१९॥
धर्म में तीव्रराग रखने वाला यति सब सुखको प्राप्त होता है । इस गाथासे वात्सल्यका कथन किया ||३१८ ||
वैयावृत्यका भक्ति नामक जो गुण है उसे कहते हैं
गा० - टी० - इस भवसे पूर्व तीसरे भवमें दर्शन विशुद्धि आदि परिणाम विशेषसे जिसने तीर्थंकरत्व नामक अतिशयशाली कर्मका बन्ध किया है, जो स्वर्गावतरण आदि पाँच महाकल्याण का भागी हैं जो कल्याणक किसी अन्यको प्राप्त नहीं होते, घातिकर्मोंके विनाशसे जिसने - त्रिकालवर्ती सव द्रव्योंके स्वरूपको प्रकाशित करनेमें पटु निरतिशय ज्ञान प्राप्त किया है, दर्शन मोह के क्षय से जिन्हें वीतराग सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई है, चारित्रमोहके क्षयसे जिसने वीतरागता प्राप्त की है, वीर्यान्तराय कर्मके प्रक्षयसे जिनमें अनन्तवीर्यं प्रकट हुआ है, जिनके संसारका अन्त आ गया है उन भव्यजीवोंका उद्धार करनेकी प्रतिज्ञासे जो वद्ध हैं, जो आठ महाप्रतिहायें और चौतीस अतिशय विशेषसे युक्त है, वे अर्हन्त है । मिथ्यात्व आदि परिणामोंसे आये आठ कर्मो बन्धनसे जो छूट चुके हैं, जो अजर अमर, अव्यावाध गुणसे युक्त है अनुपम अनन्त सुखसे शोभित हैं जिनके सदा प्रज्वलित रहने वाला आवरण रहित ज्ञानमय शरीर है, जो पुरुषाकार है और जिन्होंने परमात्म अवस्थाको पालिया है वे सिद्ध हैं । इन अर्हन्तों और सिद्धोकी भक्ति अर्हन्त सिद्ध भक्ति है । गुरु शब्दसे यहाँ आचार्य और उपाध्यायका ग्रहण किया है। उनकी भक्ति गुरु भक्ति है । और सर्वसाधुओंकी भक्ति तथा प्रधान धर्म रत्नत्रयमें सम्पूर्ण निर्मल भक्ति । इन अर्हन्त आदि का ऊपर कहा वैयावृत्य करनेसे उनकी भक्ति की गई जानना । रत्नत्रयके धारकोंका उपकार करने से उनका आदर ही उनकी भक्ति है । अभिप्राय यह है कि वैयावृत्यसे अर्हन्त आदिमें भक्ति व्यक्त होती है || ३१९ ॥
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