________________
२८४
भगवती आराधना साधोवैयावृत्त्यं करोति । 'वेज्जावच्चेण' वैयावृत्त्येन । 'तदो' तेन 'गुणपरिणामो कदो होदि' गुणपरिणामः कृतो भवति । एतदुक्तं भवति-अस्य यतेरेते गुणाः, इमे नश्यन्ति यदि नोपकारं कुर्यात् इति यश्चेतसि करोति स तेषु गुणेषु परिणतो भवति । यस्य चोपकारः कृतस्तस्य च गुणेषु परिणतिः कृता भवति । अतः स्वपरोपकारनिमित्तं वैयावृत्यं इति आख्यातं ॥३१६॥
. जह जह गुणपरिणामो तह तह आरुहइ धम्मगुणसेढिं ।
वढदि जिणवरमग्गे णवणवसंवेगसड्ढावि ॥३१७|| 'जह जह' यथा यथा गुणपरिणामो भवति । 'तह तह आरुहइ धम्मगुणसेढि' तथाऽरोहति चारित्रगणश्रेणीः। 'वडढइ' वर्धते । 'जिणवरमग्गे' जिनेन्द्रमार्गे। किं वर्द्धते ? 'नवनवसंवेगसड्ढावि' प्रत्यग्रसंसारभीरुता श्रद्धापि । इह गुणशब्देन गुणनिर्भासः स्मार्तः प्रत्यय उच्यते । तेनायमर्थ:-यथा यथा यतिगुणानां स्मरणं तथा तथा चारित्रगुणानां स्मरणं तथा तथा चारित्रगुणानुपारोहति । विस्मृतयतिगुणो न तत्र प्रयतते । तेषां गुणानां स्मरणात्तत्र रुचिरुपजायते । गुणानुरागिणो हि भव्याः । संसारभीतिः श्रद्धा च प्रवर्तमाना दृढयति यति रत्नत्रये। एतया गाथया सूत्रिता श्रद्धा व्याख्याता ॥३१७॥ गुणानामनुस्मरणात्तत्र रुचिर्भवति रुची प्रवृद्धायां वात्सल्यं नाम दर्शनस्य गुणो भवतीत्याचष्टे
सड्ढाए वढियाए वच्छल्लं भावदो उवक्कमदि ।
तो तिव्वधम्मराओ सव्वजगसुहावहो होइ ।।३१८।। 'सड्ढाए वढिदाए' श्रद्धया वद्धितया । 'वच्छल्लं भावदो उवक्कमदि' वात्सल्यं भावतः मनसा प्रारभते । 'तो' ततः । “तिव्वधम्मराओ' धर्मे तीव्रो रागः । 'सध्वजगसुहावहो होदि' सर्वेषु जगत्सु यत्सुखं ये गुण हैं । यदि मैं इनकी सेवा न करूंगा तो ये गुण नष्ट हो जायेगे। ऐसा जो चितमें विचारता हैं वह उन गुणोंमें परिणत होता हैं। और जिसकी सेवा की है उसकी गुणों में परिणति होती है । अर्थात् वैयावृत्य करने वाला स्वयं उन गुणोंसे सुवासित होता है और जिसका वैयावृत्य किया जाता है वह यति अपने गुणोंसे च्युत नहीं होता। अतः अपने और दूसरोंके उपकारके लिए वैयावृत्य कहा है ॥३१६।।।
गा०-दो०-जैसे-जैसे गुण परिणाम होता है वैसे वैसे चारित्र रूप गुणोंकी सीढ़ी पर चढता है, और जिनेन्द्रके मार्गमें नई-नई संसार भीरुता और श्रद्धा भी बढ़ती है। यहाँ गुण शब्दसे गुणोंको विषय करने वाला स्मरण ज्ञान कहा गया है। तब यह अर्थ होता हैं-जैसे-जैसे यतिके गुणोंका स्मरण होता है वैसे-वैसे चारित्र गुण पर आरोहण करता है। जो यतिके गुणोंको भूल जाता है वह उसमें प्रयत्न नहीं करता। उनके गुणोंका स्मरण करनेसे उनमें रुचि पैदा होती है। भव्य जीव गुणोंकी अनुरागी होते हैं। संसारसे भय और श्रद्धा यतिको रत्नत्रयमें दृढ़ करती है। इस गाथासे श्रद्धा गुणका कथन किया ॥३१७॥
आगे कहते हैं कि गुणोंके स्मरणसे उनमें रुचि होती है। रुचि बढ़ने पर सम्यग्दर्शनका वात्सल्य नामक गुण होता है
गा०-श्रद्धाके बढ़ने पर मुनि मनसे वात्सल्य करते हैं। उससे धर्ममें तीव्र राग होता है। धर्ममें तीव्र राग समस्त जगतमें जो इन्द्रिय जन्य और अतीन्द्रिय सुख है उसे लाता है । अथवा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org