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________________ २८६ इदानों तस्या माहात्म्यं स्तौति- भगवती आराधना संवेगजणियकरणा णिस्सल्ला मंदरुव्व णिक्कंपा । जस्स दढा जिणभची तस्स भयं णत्थि संसारे || ३२० || 'संवेगजणिकरणा' संसारभीरुताजनितोत्पादा । करणशब्दः सामान्यवचनोऽपि उत्पत्तिक्रियावृत्तिरत्रगृहीतः । 'णिस्सल्ला' मिथ्यात्वेन, मायया, निदानेन च रहिता । 'संदरुब्ब शिवकंपा' मंदर इव निश्चला । 'जस्स दढा जिणभत्ती' यस्य जिने भक्तिर्दृढा । 'णतस्स भयमत्थि संसारे' तस्य भयं नास्ति संसारात् । जिनशब्देना चात्रादादयः सर्व एवोच्यन्ते - कर्मैकदेशानां समस्तानां च जयात् । धर्मोऽपि कर्माण्यभिभवति इति द्रव्यलाभादिकमनुद्दिश्य प्रवृत्तेस्तत्कथयति । 'संवेगजणिकरणा' इत्यनेन संसारभयनिराकरणोपायभूता जिनभक्तिरिति ज्ञात्वा प्रवृत्तेति यावत् । वैनयिकमिथ्यादृष्टेः सर्वत्र भक्तिः प्रवर्तते इति तन्निरासाय णिस्सल्ला इत्युच्यते । 'मंदत्व णिक्कंपा' इत्यनेन सर्वकालवृत्तिताख्याता । सासादन सम्यग्दृष्टेज ताप्यल्पकाला न संसारानिस्सारयतीति ॥ ३२० । वैयावृत्यस्य पात्रलाभगुणमाचष्टे पंचमहव्वयगुत्तो णिग्गहिदकसायवेदणो दंतो । लब्भदि हु पत्तभूदो णाणासुदरयणणिधिभूदो ॥ ३२१|| 'पंचमहव्वयगुत्तो' पञ्चभिर्महाव्रतैः कृतास्रवनिरोधः । 'णिग्गहिय कसायवेयणो' निगृहीतकषायवेदनः कषायस्तु तपयत्यात्मानमिति वेदना । 'दंतो' दान्तः शान्तरागजदोषः । परिज्ञानाद्वैराग्यभावनातः प्रशान्तराग इति कृत्वा दान्त इत्युच्यते । 'लम्भदि खु पत्तभूदो' लभ्यते पात्रभूतः । ' णाणासुदरयणाधिभूदो' नाना अब उस भक्तिका माहात्म्य कहते हैं गा० - टी० - 'संवेग जणिय करण' में 'करण' शब्द क्रिया सामान्यका वाची होने पर भी यहाँ उसका अर्थ उत्पत्तिरूप क्रिया लिया है । अतः संसारके भयसे जो उत्पन्न होती है, मिथ्यात्व माया और निदान नामक शल्योंसे रहित सुमेरुकी तरह निश्चल, ऐसी दृढ़ जिन भक्ति जिसके है उसे संसारसे भय नहीं है । कर्मोकं एक देशको अथवा सब कर्माको जीतनेसे यहाँ 'जिन' शब्दसे अर्हन्त आदि सभी लिये है । 'धर्म भी कर्मोंको निरस्त करता है इसलिये जिन शब्दसे धर्म भी कहा जाता है । किन्तु वह धर्म द्रव्यलाभके उद्दे शसे न होकर जिन भक्ति संसारका भय दूर करनेका उपाय है । यह जानकर होना चाहिये । वैनयिक मिथ्यादृष्टिकी भक्ति सबमें होती है उसके निराकरण के लिये निःशल्य कहा है । मेरुकी तरह निश्चल कहनेसे वह भक्ति सर्वकालमें होनी चाहिये ऐसा कहा है । सासादन सम्यग्दृष्टीके अल्पकालीन भक्ति होती है किन्तु वह संसारसे नहीं निकालती ॥ ३२० ॥ वैयावृत्यका एक गुण पात्रलाभ है । उसे कहते हैंगा०टी० - वैयावृत्य करनेसे, पाँच महाव्रतों के कषाय वेदनाका निग्रह करने वाला, कषाय आत्माको दान्त अर्थात् जिसके राग जन्य दोष शान्त हो गये हैं, होती है और वैराग्य भावनासे राग शान्त होता है इससे शास्त्रोंरूपी रत्नोंका निधि है नानां शास्त्रोंका ज्ञाता है, ऐसा पात्र प्राप्त होता है' अर्थात् वैयावृत्य द्वारा कर्मोके आस्रवको रोकने वाला, संतप्त करती हैं इससे वेदना कहा है, वस्तु तत्वको जाननेसे वैराग्य भावना दन्त कहा है, तथा जो नाना प्रकारके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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