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________________ २८७ विजयोदया टीका श्रुतरत्ननिधिभूतः ॥२२१॥ दंसणणाणे तव संजमे य संधाणदा कदा होइ । तो तेण सिद्धिमग्गे ठविदो अप्पा परो चेव ॥३२२।। 'दसणणाणे' दर्शनज्ञानयोः । 'तवसंजमे य' तपश्चारित्रयोश्च । 'संधाणदा होदि' कुतश्चिन्निमित्ताद्विच्छिन्नानां दर्शनादीनां संधानं कृतं भवति वैयावृत्त्येन । 'तो' तस्मात् तेनैव वैयावृत्त्यकारिणा । 'सिद्धिमग्गे' रत्नत्रये । 'ठविदो अप्पा परो चेव' स्थापित आत्मा परश्च । अनया संधानमित्येतत्सूत्रपदव्याख्यानम् ॥२२२।। तव इत्येतद्वयाख्यातुमाह वेज्जावच्चकरो पुण अणुत्तरं तवसमाधिमारूढो । पफ्फोडितो विहरदि बहुभवबाधाकर कम्मं ।।३२३॥ 'वेज्जावच्चकरो पुण' वैयावृत्यकरः पुनः 'अणुत्तरं तवसमाधि मारूढो' उत्कृष्ट वैयावृत्त्याख्ये तपसि समाधिमे काग्नतामुपाश्रितः । 'पफ्फोडितो विहरदि' विधूनयन्विहरति । 'बहुभवबाधाकरं' कम्म' बहुभवेषु वाधाः संपादयत्कर्म ।।३२३॥ जिणसिद्धसाहुधम्मा अणागदातीदवट्टमाणगदा । तिविहेण सुद्धमदिणा सव्वे अभिपूइया होति ।।३२४॥ "जिणसिद्ध साहुधम्मा' तीर्थकृतः, सिद्धाः, साधवो, धर्मश्च । 'अणागदातीदवट्टमाणगदा' सर्वे त्रिकालवर्तिनः 'सन्वे तिविधेण पूजिदा होंति' सर्वे मनोवाक्कायः पूजिता भवन्ति । 'सुद्धमहणा' शुद्धचेतसा । तीर्थकृदादयस्तदाज्ञासंपादनात्पुजिताः, दशविधे धर्म तपसोऽन्तर्भावाद्वैयावृत्त्यस्य च तदन्तर्गतत्वाद्ध यावृत्त्ये आदरात तत्प्रवृत्तश्च धर्मः पूजितो भवति ॥३२४॥ करने वालेको वैयावृत्यके लिये ऐसे सत्पात्र मुनी प्राप्त होते हैं यह एक महान् लाभ है ।।३२१॥ गा०-टी०-किसी निमित्तसे सम्यग्दर्शन आदिमें त्रुटि हो गई हो तो वैयावृत्य करनेसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्तप और सम्यक चारित्रमें पुनः नियुक्ति हो जाती है। अतः उसी वैयावृत्यकारीके द्वारा स्वयं आत्मा तथा जिसकी वह वैयावृत्य करता है उसकी रत्नत्रय में पुनः स्थिति होती है। इससे दोनों का ही लाभ है। इस गाथाके द्वारा 'संधान' पदका व्याख्यान किया है ॥३२२।। तप गुणको कहते हैं गा०-वैयावृत्य करनेवाला मुनि उत्कृष्ट वैयावृत्य नामक तपमें एकाग्र होकर अनेक भवोंमें कष्ट देनेवाले कर्मोंकी निर्जरा करता हुआ विहार करता है ॥३२३।।। गा०-शुद्धचित्तसे वैयावृत्य करनेवालेके द्वारा भूत, भविष्यत् और वर्तमानकालके सब तीर्थंकर, सिद्ध, साधु और धर्म मन-बचन-कायसे पूजित होते हैं। तीर्थंकरोंकी आज्ञाका पालन करनेसे सभी तीर्थंकर आदि इसके द्वारा पूजित होते हैं। तथा दस प्रकाके धर्मों में एक तपधर्म भी है और वैयावृत्य उसका एक भेद है अतः वैयावृत्यमें आदरभाव रखने तथा वैयावृत्य करनेसे धर्म पूजित होता है ॥३२४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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