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________________ ३५० भगवती आराधना दुर्ज्ञेयो भवति नरेण तस्वधर्मो ज्ञात्वापि प्रयतनमत्र कष्टमेव । तज्ज्ञात्वा धृतिमुपलभ्य दृष्टतत्वः, सद्धर्मे क्षणमपि मा कृथाः प्रमादम् ॥ भूत्वायं सुकरतरोऽपि पापकार्यात् धर्मोऽभूत्क्षणमपि दुष्करो मनुष्यः । आश्चर्यं किमपि न चात्र सन्ति मूढाः स्यादेतद् ध्रुवमिह कर्मणां गुरुत्वम् ॥ काकिण्यामपि गणयन्गुणं महान्तं तद्ध ेतोः श्रममतुलं करोति यत्नात् । न त्वज्ञः सुरमनुजद्धमोक्षमूले सद्धमें हृदयमपि स्थिरीकरोति ॥ यत्पापे भृशमहिते करोति चेष्टामालस्यं परमहिते च याति धर्मे । युक्तं तद्यदि न तथा भवेत्पृथिव्यां संसारं ननु पुरुषः कथं लभेत ॥ इति । [ ] एवमपि परंपरेण' दुर्लभपरंपरया । 'लद्धण वि' लब्ध्वापि । 'संयम' संजमं । 'खवगो' क्षपकः । कि न 'लभेज्ज सुदिं' न लभते श्रुति । 'संवेगकरीं' संसारभयजननीं । 'अबहुस्सुदसकास' अवहुश्रुतस्य सूरेः पार्श्वे । तस्माच्छ्रुतवानाचार्य आश्रयणीयः इति प्रस्तुतेन संबन्धः ॥ 1 'सम्मं सुविमलभंतो' समीचीनां श्रुतिमलभमानः । कदा ? मरणकाले । 'अबहुस्सुदसगासे' अबहुश्रुतस्य पार्श्वे । 'दिग्धद्ध' चिरं कालं । 'मुत्तिमुवगमित्तावि' मुक्तिशब्देनात्र प्राणेन्द्रियविषयासंयमत्यागः परिगृह्यते । तेनायमर्थः - चिरप्रवर्तितसंयमोऽपीति । 'परिवडदि' प्रच्यवते । कुतः ? संयमात् । संयमहानिकथनेन चारित्राराधनाया अभाव आख्यायते । संयमात्प्रच्यवते कथमिति चेत्- मनोज्ञानाममनोज्ञानां च विषयाणां सर्वत्र सदा च सांनिध्यात् अभ्यन्तरकारणस्य कर्मणोऽपि रागद्वेषमोहपरिणामाः प्रादुर्भवन्तीति ते दुर्निवारा इति वदन्ति । मनुष्यके द्वारा धर्मका तत्त्व जानना कठिन है । जानकर भी उसमें प्रयत्नशीलता कष्टकर है । उस धर्मको जानकर, तत्त्व दृष्टिसे सम्पन्न मनुष्यों धैर्यं धारण करके समीचीन धर्मके विषयमें एक क्षणके लिए भी प्रमाद मत करो। पापकार्य से अति सुकर होने पर भी यह धर्म मनुष्योंको क्षणभरके लिए दुष्कर होता है । इसमें कोई आश्चर्य नहीं है । यह निश्चय ही कर्मों की गुरुताका फल है । यह मनुष्य एक कौड़ी में भी महान् गुण मानकर उसके लिए अतुल श्रम करता है । किन्तु अज्ञानी देव और मनुष्योंकी ऋद्धि के मूल समीचीन धर्म में अपने मनको भी स्थिर नहीं करता । अत्यन्त अहितकारी पापमें तो चेष्टा करता है और परमहितकारी धर्ममें आलस्य करता है । यह ठीक ही हैं । यदि ऐसा न इस पृथिवी पर संसार कैसे पाता, कैसे सर्वत्र भ्रमण करता ।' होता तो पुरुष इस तरह उत्तरोत्तर दुर्लभ संयमको धारण करके भी क्षपक अल्पज्ञानी आचार्यके पास संसारसे भयभीत करनेवाला उपदेश नहीं प्राप्त कर सकता । इसलिए शास्त्रज्ञ आचार्यका आश्रय लेना चाहिए, ऐसा प्रस्तुत कथनके साथ सम्बन्ध लगाना चाहिए । अल्पज्ञानी आचार्य के पास समीचीन उपदेश न पाकर चिरकाल तक मुक्तिको - यहाँ मुक्तिशब्दसे प्राणी और इन्द्रियोंके विषय में असंयमका त्याग लिया जाता है। अतः उसका अर्थ होता है - संयमको धारण करके भी मरते समय संयमसे गिर जाता है । संयमकी हानि कहनेसे उसके चारित्र आराधनाका अभाव कहा है । संयमसे क्यों गिरता है । यह कहते हैं मनको प्रिय और अप्रिय लगनेवाले विषयोंके सदा सर्वत्र समीप रहनेसे तथा अभ्यन्तर कारण कर्मका उदय होनेसे रागद्वेष और मोहरूप परिणाम उत्पन्न होते हैं और वे दुर्निवार होते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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