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________________ विजयोदया टोका वा मतिमान्द्यादत एव तत्र नानुरागोऽस्य । अन्तरेण चानुरागं कथं श्रोतुमुत्सहेत् । तथा चाभाणि 'साधनां शिवगतिमार्गदेशकानां संप्राप्तो निलयमपि प्रमाददोषात् । आस्ते यो जनवचनानि तत्र शृण्वन् गत्वासौ ह्रवमपि पङ्क एव मग्नः ॥' इति [ ] सत्यपि श्रवणे ग्रहणं विज्ञानं तन्निरूपितस्यार्थस्य दुष्करें। सौक्ष्म्याज्जीवादिवस्तुतत्त्वस्य कदाचिदप्यश्रुतत्वात् श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमप्रकर्षाभावाच्च । ज्ञाते धर्मतत्त्वे तत्र श्रद्धा दुर्लभा । सोऽयं जिनप्रणीतो धर्मः अहिंसालक्षणः, सत्याधिष्ठानः, परद्रव्यापहरणपरिवर्जनात्मकः, नवविधब्रह्मचर्यगुप्तः, परित्यक्ताशेषमूर्छः, विनयमूलः, समीचीनज्ञानपुरःसरः, क्षमामार्दवावसंतोष गुणः, नरकवर्तनीवत्रार्गलभूतः, तिर्यग्गतिलताकुठारः, कठोराशनिर्दुःखाचलशिखराणां, मोहमहामहीरहोत्पाटनपटुमातरिश्वा जरादवानलशिखामुखप्रशमनमुखरो घनाघनः, प्रावर्षकः प्रावृषेण्यः, मरणहरिणविशसनचटुलश्चण्डपुण्डरीकः, क्रूररोगोरगाणां विनतासुतः, संपत्सुरापगायां हिमाचलः, यः सेतुरगाधशोकपङ्कस्य, पिता सुभगतायाः, ऐश्वर्यरत्नानामाकरः, कुयोनिवनविप्रनष्टानां पृथुलशिवपुरं, इति श्रद्धानं अतिदुर्लभं दर्शनमोहोदयात् । उपशमात् क्षयोपशमात्, क्षयाद्वा दर्शनमोहस्य जातेऽपि श्रद्धाने संयमो दुर्लभतरः प्रत्याख्यानावरणोदयात् । उक्तं च थोड़ा बहुत सुनता है किन्तु रुचते नहीं। अथवा मोहके उदयसे उनके धर्मके महत्त्वका प्रकाशन उसे नहीं रुचता । अथवा बुद्धि की मन्दतासे समझता नहीं हैं। इसीसे उसका उस उपदेशमें अनुराग नहीं होता। और अनुरागके बिना सुननेका उत्साह कैसे हो सकता है। कहा है-'जो मोक्षमार्गके उपदेशक साधुओंके निवास स्थान पर जाकर भी प्रमादवश वहाँ लोगोंकी बातचीत सुनता हुआ बैठता है वह तालाब पर जाकर भी कीचड़ में ही फंस जाता है । _उपदेश सुनकर भी उसमें कहे गये अर्थका ग्रहण, उसका ज्ञान कठिन है; क्योंकि एक तो जीवादि वस्तु तत्त्व सूक्ष्म है, दूसरे पहले कभी सुना नहीं, तीसरे श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमका प्रकर्ष नहीं है। धर्मतत्त्वको जानने पर भी उसमें श्रद्धा दुर्लभ है। वह यह जिन भगवानके द्वारा कहा गया धर्म अहिंसा रूप है, सत्य उसका आधार है, उसमें परद्रव्यका अपहरण त्यागना होता है, नौ प्रकारके ब्रह्मचर्यसे वह रक्षित है, उसमें समस्त ममत्वभाव छोड़ना होता है । विनय उसका मूल है। समीचीन ज्ञानपूर्वक वह धर्म होता है। क्षमा, मार्दव, आर्जव, सन्तोष उसके गुण हैं। नरकके मार्गके लिए वज्रकी सांकल रूप है। तिर्यञ्चगतिरूपी बेलके लिए कुठार है । दुःखरूप पर्वतोंके शिखरोंके लिए कठोर वज्र है । मोहरूपी महावृक्षको उखाड़नेमें चतुर प्रचण्ड वायु है। जरारूपी जंगलकी आगकी लपेटोंको शान्त करनेके लिए वर्षाकालीन मेघ है। मृत्युरूपी हरिणका वध करनेके लिए प्रचण्ड बाघ है। क्रूर रोगरूपी सोके लिए गरुड है। सम्पतिरूपी गंगाकी उत्पत्तिके लिए हिमवान पर्वत है। गम्भीर शोक रूपी कीचड़से पार उतरनेके लिए पुल है । सौभाग्यका पिता है। ऐश्वर्य रूपी रत्नोंकी खान है, कुयोनिरूपी वनमें भटकते हुए लोगोंके लिए विशाल मोक्ष नगर है।' इस प्रकारका श्रद्धान दर्शनमोहका उदय होनेसे अति दुर्लभ है । दर्शनमोहका उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षयसे श्रद्धान होनेपर भी प्रत्याख्यानावरणका उदय होनेसे संयम उससे भी अधिक दुर्लभ है । कहा है १. गुणभूषणः आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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