SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 418
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विजयोदया टीका ३५१ 'सक्कं वंसी छत्तूं' अल्पवंशः वंशीत्युच्यते गाढावलग्नता हि तत्र संभवति शक्यते वंशी च्छेत्तु। 'तत्तो' गुल्मात् 'उक्कट्ठिदु अवक्रष्टुं । 'पुणो' पश्चात् । 'दुक्ला' दुष्करं । 'इय' एवं । 'संजदस्स वि' संयतस्यापि मनः । 'विसएसु' रूपादिविषयं । 'उक्कट्ठिदु' अपक्रष्टु। 'दुक्ख' दुष्करं । रागद्वेषेभ्यो व्यावर्तयितुं अशक्यं । एतदुक्तं भवति-रागद्वेषविजये यदि नाम प्रतिज्ञा कृता तथापि कृतशरीरसल्लेखनस्य क्षुदादिपरीषहरुपद्रुत य मन्दवीर्यस्य न श्रुतज्ञानप्रणिधानन्तच्चान्तरेण रागद्वेषयोःप्रवृत्तेन चारित्राधकता स्यात् । बहुश्रुतः पुनः यथास्य रागद्व पौ न जायेत तथोपदिशति भोगनिर्वेजनी शरीरनिर्वेजनी वा कथामित्थं एकान्तदुःख निरयप्रतिष्ठा तिर्यक्ष देवेषु च मानुषेषु । क्वचित्कदाचिन्नु कथंचिदेव सौख्यस्य संज्ञात्र शरीरिणां स्यात् ।। १॥ एकेन जन्मस्वटताप्रमेयं शरीरिणा दुःखमवाप्यते यत् । अनन्तभागोऽपि न तस्य हि स्यात् सर्व सुखम् सर्वशरीरसंस्थं ॥२॥ तत्रैकजीवः सुखभागमेकं भजेत्कियन्तं जननाणवेऽस्मिन् । चंचूर्यमाणः परितो वराको वनेऽतिभीतो हरिणो यथैकः ॥ ३ ॥ भवेष्वनन्तेषु सुखे तथापि शरीरिण केन समापनोये । एकप्रसूतौ यदवाप्यते तत्कियद्भवेत्तस्य विमृश्यमाणे ॥ ४॥ अत्यल्पमप्यस्य तदस्तु तावत्तदृदुःखराशौ पतितं तदीयम् । स्यात्तसं स्वादुरसं यथाम्बु प्राप्याम्बुदानां लवणार्णवाम्बु ॥ ५ ॥ यच्चाप्यवः सौख्यमितीष्यतेऽत्र पूर्वोत्थदुःखप्रतिकार एषः।। विना हि दुःखात्रथमप्रसूतात् न लक्ष्यते किंचन सौख्यमत्र ॥ ६॥ हैं। जैसे बाँसका झुण्ड गाढरूपसे वृहद् रहता है उसमेंसे छोटा बाँस तो खींचा जा सकता है। किन्तु पीछे उसको अलग करना बहुत कठिन है । उसी तरह संयमीका भी मन रूपादिविषयोंमें फंसनेपर निकालना कठिन होता है अर्थात् रागद्वेषसे हटाना अशक्य होता है। कहनेका आशय यह है कि यद्यपि रागद्वेषको जीतनेकी प्रतिज्ञा की है फिर भी शरीरकी सल्लेखना करनेपर भूख आदिकी परीषहसे पीड़ित और मन्दशक्ति उस क्षपकके श्रुतज्ञानकी ओर उपयोग नहीं होता। और उसके विना रागद्वषमें प्रवृत्ति होनेसे चारित्रकी आराधना नहीं होती। किन्तु बहुश्र त आचार्य उसको रागद्वेष पैदा न हों इस प्रकारकी भोग और शरीरसे वैराग्य करानेवाली कथा इस प्रकार कहता है नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवोंमें सर्वथा दुःख ही है। उनमें प्राणियोंको सुखकी संज्ञा कभी, कहीं किञ्चित् ही होती है। एक प्राणी नाना जन्मोंमें भ्रमण करते हुए जो अपरिमित दुःख भोगता है उसका अनन्तभाग भी सब सुख सब शरीरोंमें मिलकर भी नहीं होता। तब इस जन्मरूपी समुद्रमें एक जीव उस सुखका कितना भाग भोगता है ? जैसे वनमें एक अत्यन्त डरा हुमा बेचारा हरिण सब ओरसे त्रस्त हुआ रहता है वैसी ही दशा जीवकी संसारमें है । अनन्तभवोंमें एक प्राणी के द्वारा प्राप्त सुख की जब यह स्थिति है तो उसका विचार करनेपर एक जन्ममें जो सुख प्राप्त होता है वह कितना होगा । अत्यन्त अल्प भी यह सुख दुःखके समुद्र में गिरकर दुःखरूप ही हो जाता है । जैसे मीठा भी मेघोंका पानी लवण समुद्रके जल में पड़कर खारा हो जाता है । तथा उसमें जो सुखका आभास होता है वह सुख नहीं है किन्तु पहले उत्पन्न हुए दुःखका प्रतीकार है। १. स्य श्रुतज्ञानप्रणिधानात्त-आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy