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________________ १२४ भगवती आराधना 'लोयकवों लोचे कृतः स्थितः लोचकृतः सप्तमीति योगविभागात्समासः । तस्मिन् लोचे कृते । लोचस्थिते इति केचित् । अन्ये तु वदन्ति लोयगदे इति पठंतः लोचं गतः प्राप्तः लोचगतः तस्मिन्निति । अथवा कृतशब्दो भावसाधनः ततः सल्लक्षणा सप्तमी लोच एव कृतं तस्मिन् । लोचक्रियायां सत्यां । मुडत्तं' मुंडशिरस्कता नाम भवति । न मुंडशिरस्कता मुक्त्युपायो गुणोऽरत्नत्रयत्वादसत्याभिधानवत् तत्किमुक्तेनानेनानुपयोगिना गणेनेत्याशंकायां आह-'मडत्ते होदि णिग्वियारत्तं' इति । 'मुडत्ते' मुंडनायां सत्त्यां । 'होदि' भवति । 'णिग्विगारत्तं' निर्विकारता । विकारो विक्रिया सलीलगमनशृगारकथाकटाक्षेक्षणादिकः । तस्मान्निष्क्रान्तः तत्राप्रवृत्तः निर्विकारः तस्य भावः निर्विकारता । निर्विकारो भवति इति यावत । 'तो' ततः 'णिब्वियारकरणो विकाररहितक्रियः । 'पग्गहिददरं' प्रगृहीततरं । 'परक्कमदि' चेष्टते करणत्रये इति शेषः । रत्नत्रयोद्योगे परंपरया लोचस्योपयोगः समाख्यातोऽनया गाथया । नग्नस्य मुंडस्य मम सविभ्रमं गमनादिकं जनो दृष्ट्वा हसति, शोभते तरामियमस्य विलासिता षंडकस्य वामलोचनाविलास इवेति मन्यमानो निरस्तविकारो मुक्तये केवलं घटते इत्यभिप्रायः ॥८९।। अप्पा दमिदो लोएण होइ ण सुहे य संगमुवयादि । साधीणदा य णिद्दोसदा य देहे य णिम्ममदा ॥९०।। 'अप्पा' आत्मा । 'दमिदो होदि' वशीकृतो भवति । कस्य ? आत्मन एव । केन करणेन ? 'लोएण' केशोत्पाटनेन । दुःखभावनया निगृहीतदर्पः सर्व एव शांतो भवति यथा बलीवादिरिति मन्यते । टो०-लोचमें कृत अर्थात् स्थित लोचकृत है। दोनोंका योगविभाग करके सप्तमी समासमें अर्थ होता है-लोच करने पर। कोई 'लोचमें स्थित होने पर' ऐसा अर्थ करते हैं । अन्य 'लोयगदे' ऐसा पाठ रखते हैं। वे अर्थ करते हैं लोचको प्राप्त होने पर । अथवा कृत शब्द भावसाधन है। तब सप्तमीका अर्थ सत् होता है अर्थात् लोच क्रिया होने पर । मुण्डित होता है—सिर मुंड जाता है। शङ्का-सिर मुण्डन मुक्तिका उपाय नहीं है क्योंकि वह रत्नत्रय रूप नहीं है जैसे असत्य बोलना । तब इस अनुपयोगी गुणके कहनेसे क्या लाभ ? . ___समाधान-इसके उत्तरमें कहते हैं कि मुण्डन होने पर निर्विकारता होती है । लीला सहित गमन, शृगार कथा, कटाक्ष द्वारा निरीक्षण ये सब विकार है जो ये सब नहीं करता वह निर्विकार होता है । और जिसकी चेष्टाएँ विकार रहित होती हैं वह रत्नत्रयमें उद्योग करता है। इस गाथासे परम्परासे लोचका उपयोग कहा है। मैं नग्न और मुण्डे सिर हूँ मेरा विलासपूर्ण गमन आदि देखकर लोग हँसते हैं कि नपुंसकके स्त्री विलासकी तरह इसकी विलासिता कैसी शोभती है ? ऐसा मान, विकारको दूरकर वह केवल मुक्तिके लिये प्रयत्न करता है, यह इस गाथाका अभिप्राय है ॥ ८९ ।। गा०—केशलोचसे आत्मा दमित होता है और सुखमें आसक्त नहीं होता है। और स्वाधीनता निर्दोषता और निर्ममत्व होता है । ९० ॥ टो०-केश उपाडनेसे आत्मा आत्माके वशमें होता है । जैसे बैल वगैरह दुःख देनेसे शान्त हो जाते हैं वैसे ही दुःख भावनासे मदका निग्रह होने पर सभी शान्त हो जाते हैं। सुखमें आसक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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