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________________ विजयोदया टीका १२५ 'सुखे य' सुखे च । 'संगं' आसक्ततां नोपयाति । सुखमेव सुखलंपटं करोति जनं । दुःखेऽन्तर्भाव्यमाने सुखासक्तिहन्यते सुखोपयोगमूलात्तदभावात् । बीजाभावेऽकुर इव । इन्द्रियसुखं वाऽत्र सुखशब्देनोच्यते तत्रासक्तो हिंसादिषु प्रवर्तते । तेन परिग्रहारंभमूलात्सुखासंगाद्वयावृत्तिः संवर एवेति मुक्तेर्भवत्युपायः । अभिनवास्रवनिरोधमंतरण का नाम निर्जरा? तस्यां वाऽसत्यां का मुक्तिरिति भावः । 'साधीणदा य' स्ववशता च । केशासक्तो हि जनोऽवश्यं शिरोम्रक्षण, सम्मर्दने प्रक्षालने, तच्छोषणेच प्रयतते । स चायं व्यापारो विघ्नमावहति स्वाध्यायादेः । 'णिहोसदा य निर्दोषती च । या सदोषक्रिया सा न कार्या यथा स्तेयादिका। निर्दोषा त्वनुष्ठीयते यथानशनादिका। तथा चेयमदोषा लोचक्रिया। 'देहे य' देहे च । "णिम्ममदा' ममेदंबुद्धिरहितता। अनेन शौचाख्यो धर्मो भावितो भवतीत्युक्तं भवति । 'प्रकृष्टा लोभनिवृत्तिः शौचं शरीरलोभनिवृत्तिः शौचं । शरीरलोभनिवृत्तिः सकललोभनिराक्रियाया मूलं । शरीरोपकृतये बन्धुधनादिष्वस्य लोभः । धर्मश्च संवरहेतुः, गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरिषहजपैरिति वचनात् ॥९॥ आणक्खिदा य लोचेण अप्पणो होदि सम्मसढ्ढा य । उग्गो तवो य लोचो तहेव दुक्खस्स सहण च ।। ९१ ।। 'आणक्खिदा य होदि' आदर्शिता भवति । 'लोचेण' लोचेन । का? 'धम्मसढ्ढा' धर्मे चारित्रे नहीं होता । सुख ही मनुष्यको सुखलम्पट बनाता है । अन्तरंगमें दुःखकी भावना भाने पर सुखकी आसक्ति कम होती है सुखकी आसक्तिका मूल है सुखका उपभोग । उसका अभाव होनेसे सुखकी आसक्ति नहीं होती । जैसे बीजके अभावमें अंकुर उत्पन्न नहीं होता। अथवा यहाँ सुख शब्दसे इन्द्रिय सुख लिया है। जो इन्द्रिय सुखमें आसक्त होता है वह हिंसा आदि करता है। अतः जो सुखासक्ति परिग्रह और आरम्भका मूल है उससे निवृत्त होना संवर ही है । अतः वह मुक्तिका उपाय है। नवीन कर्मोंका आना रुके बिना निर्जरा कैसी ? और उसके अभावमें मुक्ति कैसी? यह अभिप्राय है । तथा केशलोचसे स्वाधीनता आती है क्योंकि जो मनुष्य केशोंसे अनुराग रखता है वह अवश्य सिरको साफ करने, उसकी मालिश करने धोने तथा सुखाने में लगा रहता है और ये सव काम स्वाध्याय आदिमें विघ्न डालते हैं। तथा निर्दोषता होती है। जो क्रिया सदोष है वह नहीं करना चाहिए जैसे चोरी आदि । किन्तु निर्दोष क्रिया की जाती है जैसे उपवास वगैरह । उसी तरह लोच क्रिया भी निर्दोष है। शरीरमें 'यह मेरा है' ऐसी बुद्धि नहीं होती। इससे शौच धर्म पलता है यह कहा है। लोभसे अत्यन्त निवृत्तिको शौच कहते हैं । शरीरमें लोभकी निवृत्ति भी शौच है। शरीरमें लोभकी निवृत्ति सब प्रकारके लोभोंको दूर करनेका मूल है । शरीरके उपकारके लिए ही मनुष्य परिवार और धन आदिका लोभ करता है और शौच धर्म संवरका कारण है क्योंकि तत्त्वार्थ सूत्रमें गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा और परीषह जयसे संवर कहा है ॥९०॥ गा०-और केशलोच करनेसे आत्माकी धर्ममें श्रद्धा प्रदर्शित होती है। उसी प्रकार लोच उग्र तप है और दुःखका सहन है ।। ९१ ।। टी.-लोच करनेसे आत्माकी धर्म अर्थात् चारित्रमें श्रद्धा प्रदर्शित होती है । अर्थात् १. तिहन्यते-आ० मू० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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