SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२६ भगवती आराधना श्रद्धा। कस्य ? 'अप्पणों' आत्मनः । महती धर्मस्य श्रद्धाऽन्यथा कथमिदं दुःसहं वदेशमारभते इति । आत्मनो धर्मश्रद्धाप्रकाशनेन परस्यापि धर्मश्रद्धाजननोपबृहणं कृतं भवति । सोऽयमपवृहणाख्यो गुणो भावितो भवति । 'उग्गो तवो य' उग्रं च तपः कायक्लेशाख्यं दुःखांतराणि च सहते ।। 'लोचः तथैव' व्यावणितगुणवच्च । 'दुक्खस्स' दुःखस्य 'सहणं च' सहनं च दुःखं भावयत् दुःखान्तराणि च सहते । दुःखसहनान्निर्जरा भवत्यशभकर्मणां ॥९१॥ लोचोत्ति गदं ॥ व्युत्सृष्टशरीरताभिधानायोत्तरः प्रबंधः सिण्हाणभंगुव्वट्टणाणि णहकेसमंसुसंठप्पं । दंतोट्ठकण्णमुहणासियच्छिभमुहाइंसंठप्पं ॥ ९२ ।।। सिण्हाणभंगुम्वट्टणाणि वज्जेदिति पदघटना स्नानाभ्यंजनोद्वर्तनानि ।। णहकेसमंसुसंठप्पं नखकेशश्मश्रुसंस्कारं च वर्जयन्ति । अन्तरेणापि चशब्दं समुच्चयार्थप्रतीतिः पृथिव्यापस्तेजो वायुराकाशं कालो दिगात्मा मनः इति द्रव्याणि' इत्यत्र यथा ।। दन्तोट्ठकण्णमुहणासियच्छिभमुहादि संठप्पं वज्जेदिति पदरचना ।। दंतानामोष्ठयोः, कर्णयोर्मुखस्य, नासिकाया, अक्ष्णोध्रुवोरादिग्रहणात्पाणिपादादीनां च संस्कृति परिहरंति ।। स्नानमनेकप्रकारं शिरोमात्रप्रक्षालनं, शिरो मुक्त्वा अन्यस्य वा गात्रस्य, समस्तस्य वा । तन्न शीतोदकेन क्रियते स्थावराणां त्रसानां च वाधा माभूदिति । कर्दमवालुकादिमनाज्जलक्षोभणात्तच्छरीराणा च वनस्पतीनां पीडातःमत्स्यदर्दुरं सूक्ष्मत्रसानां च स्नानं निवार्यते । उष्णोदकेन स्ना त्विति चेन्न, तत्र त्रस थावरइसकी धर्मश्रद्धा महान है, यदि न होती तो इतना दुःसह कष्ट क्यों उठाता ? अपनी धर्मश्रद्धा प्रकाशित करनेसे दूसरेकी भी धर्मश्रद्धा उत्पन्न होती है और उसमें वृद्धि होती है। इस तरह उपवृंहण नामक गुण भी भावित होता है। तथा लोचसे कायक्लेश नामक उग्र तप होता है। तथा दुःख सहन करनेसे अन्य दुःखोंको भी सहन करने में समर्थ होता है। दुःख सहन करनेसे अशुभ कर्मोकी निर्जरा होती है । इस प्रकार लोचका कथन समाप्त हुआ ॥९१॥ ___ व्युत्सृष्ट शरीरता अर्थात् शरीरसे ममत्वके त्यागका कथन करनेके लिए आगेकी गाथा कहते हैं गा०-स्नान, तेलमर्दन, उबटन और नख, केश, दाढ़ी-मूंछोंका संस्कार छोड़ देते हैं। दाँत, ओष्ठ, कान, मुख, नाक, भौं आदिका संस्कार छोड़ देते हैं ॥९२।। टो०-'छोड़ते हैं' यह पद लगा लेना चाहिए । 'च' शब्दके विना भी समुच्चयरूप अर्थका बोध होता है । जैसे पृथिवी जल तेज वायु आकाश काल दिशा आत्मा मन ये द्रव्य हैं। यहाँ 'च' शब्द न होनेपर भी समुच्चयरूप अर्थका बोध होता है। अतः स्नान, अभ्यंजन, और उबटन नहीं लगाता है नख, केश, दाढ़ीका संस्कार और दाँत, ओष्ठ, कान, मुख, नाक, भौं आदिसे हाथ पैर आदिका संस्कार छोड़ देते हैं। स्नानके अनेक प्रकार हैं-सिरमात्र धोना, सिरको छोड़कर शेष शरीरको धोना अथवा समस्त शरीरको धोना। स्थावर और त्रसजीवोंको बाधा न हो, इसलिए स्नान ठण्डे जलसे नहीं करते । कीचड़ रेत आदिके मर्दनसे पानीमें क्षोभ पैदा होता है और जिसके होनेसे उनमें रहनेवाले वनस्पति कायिक जीवोंको तथा मछली मेढक और सूक्ष्म त्रसजीवोंको पीड़ा होती है। इस १. स्नायादिति-आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy