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________________ ७१६ भगवती आराधना काष्ठशैलशिलारूपैनिपतंति च केषुचित् । पततस्तान्प्रतीच्छंति ते च शूलाग्रसंस्थिताः ॥१०॥ मज्जयंति जलीभूय वायूभूय नुदंति च । वहंति बहनीभूय न दयंति परस्परं ॥११॥ तिष्ठ दासैव हन्ति त्वां त्वं कुतस्त्यः पलायसे । निगृहसे महामोहान्मृत्युस्त्वां समुपस्थितः ॥१२॥ छिद्धि भिद्धि तुवाकर्ष रुद्धि इंधि वधान तं । बधाननं मदानाश दह च्छादय मारय ।।१३।। प्रबंधे पातयाप्येनं तुद पिंडों प्रदीपय । विशसेति च संरभ्य तं मचंति गिरोऽशुभाः ॥१४॥ जनेनेदृशा नारकेण प्रापितवेदनां बुद्धि निरूपयति जं 'अबद्धदो उप्पाडिदाणि अच्छीणि णिरयवासम्मि । अवसस्स उक्खया जं सतूलमूलाय ते जिब्भा ॥१५६७॥ 'जं अबद्धदो उपाडिदाणि' शिर:पृष्ठदेशादुत्पाटिते । 'अच्छोणि' लोचने । 'जिरयवासे य' नरकवासे च । 'अवसस्स' अवशस्य । 'उत्खाता' उत्पाटिता। 'ज' यत् । 'सतूलमूलाय ते जिब्भा' निरवशेषा ते जिह्वा ।।१५६७॥ कुंभीपाएसु तुम उक्कढिओ जं चिरं पि व सोल्लं । जं सुठिउव्व णिरयम्मि पउलिदो पावकम्मेहिं ॥१५६८॥ 'कुंभीपाएसु तुम' कुभीपाकेषु त्वं । 'उक्कड्ढिदो' उत्क्वथितः । 'जं सुट्ठिउज्व' शूलप्रोतमांसवत् । 'णिरयम्मि' नरके । 'पोलिदो' अंगारप्रकरे पक्वः । 'पावकम्मेहि' पापकर्मभिः ।।१५६८॥ आदिका रूप अपनी विक्रियासे बनाकर विस्तारपूर्वक परस्परमें कष्ट देते हैं। कुछ काष्ठ, पर्वत और शिलारूप बनकर उनपर बरसते हैं । उनको अपने ऊपर गिरते देखकर दूसरे नारकी जो सूलीके अग्र भागपर टंगे होते हैं उन्हें ग्रहण करते हैं। वे नारकी जल बनकर दूसरे नारकियोंको डुबाते हैं, वायु बनकर उड़ाते हैं । आग बनकर जलाते हैं । परस्परमें दया नहीं करते । अरे दासीपुत्र ! ठहर, कहाँ भागा जाता है। मैं तुझे मारूँगा। तेरी मृत्यु आ गई है। इसका छेदन करो, भेदन करो, पकड़ लो, खींच लो, मार डालो, जला डालो, चीर दो इत्यादि अशुभ वचन बोलते हैं ॥१५६६।। नारको जीवने इस प्रकार जो वेदना भोगी उसे कहते हैं गा०-नरकमें सिरके पिछले भागसे तेरी आँखें निकाली गई । और पराधीनतावश तेरी पूरी जिह्वा जड़मूलसे उखाड़ी गई ॥१५६७।। गा०-पापी नारकियोंके द्वारा नरकमें तुम चिरकाल तक कुम्भीपाकमें ओटाये गये। तथा सूलमें पिरोये मांसकी तरह अंगारोंपर पकाये गये ॥१५६८॥ १. आवट्ठदो मु० । अव दो मूलारा० । २. पि सोहग्गे अ० ज० । सोल्लं घृतमिश्रित तैलं वजलेप इत्यन्य:-मूलारा० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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